Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १७१ करते हुए भी केवली विकारमय नहीं होते। विकार का मूल कारण मोह था, उसका नाश हो जाने से इच्छा आदि रूप विकार नहीं रहा। कहा भी है
कायवाक्यमनसा प्रवृत्तयो नाभवस्तव मुनेश्चिकोर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीरतावकचिन्त्यमीहितम् ॥४७॥ वृहत्स्व०
अर्थ-हे मुने 'मैं कुछ करू' इस इच्छा से आपके मन्वचन काय की प्रवृत्तियाँ हुई सो ही बात नहीं है। और वे प्रवृत्तियाँ आपके बिना विचारे हुई है सो भी बात नहीं है । पर होती अवश्य है, इसलिये हे धीर, आपकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं। भावार्थ-संसार में जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती हैं वे इच्छापूर्वक होती हैं और जो प्रवृत्तियाँ बिना विचारे होती हैं वे ग्राह्य नहीं मानी जाती। पर यही आश्चर्य है कि आपकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक न होकर भी ग्राह्य हैं।
-ण. सं. 18-9-58/V/बंशीधर केवली की सर्वज्ञता उपचार नय से है, तथापि है वास्तविक शंका-केवलज्ञानी क्या निश्चयनय से सर्वज्ञ हैं या व्यवहारनय से सर्वज्ञ हैं ?
समाधान-निश्चयनय और व्यवहारनय का लक्षण इसप्रकार है-'आत्माधितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनय' अर्थात स्व आश्रित निश्चयनय है और पर के आश्रित व्यवहारनय है। (समयसार गाथा २७२ आत्मख्याति टीका)। निश्चयनय व व्यवहारनय की इस परिभाषा अनुसार श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार गाथा १५९ में कहा है-'केवली भगवान सर्वपदार्थों को देखते जानते हैं यह कथन व्यवहारनय से है परन्तु नियम करके निश्चयनय से ) केवलज्ञानी अपने आत्मस्वरूप को ही देखते जानते हैं। इस ही विषय को समयसार गाथा ३५६, ३६० व ३६१ में कहा है कि-'निश्चयनय से पर का ज्ञायक नहीं है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा ज्ञाता अपने स्वभाव से परद्रव्य को जानता है।
उपर्युक्त आगम अनुसार केवली भगवान निश्चयनय की अपेक्षा सर्वज्ञ नहीं हैं किन्तु व्यवहारनय अथवा उपचार से सर्वज अर्थात तीन लोक और तीन काल की बात को जानने वाले हैं। श्री म बसेन आचार्य ने आलापपद्धति में भी कहा है कि-उपचार से जीव के मूर्तपना व अचेतनपना है और उपचार से सिद्धों के पर का ज्ञातापना है।
इसप्रकार निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का आश्रय करनेवाले स्याद्वादियों के मत में तो केवलज्ञानी आत्मज्ञ और सर्वज्ञसिद्ध हो जाते हैं। किन्तु जिनके मत में निश्चयनय ही सत्यार्थ है और व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ है उनके मत में केवलज्ञानी के सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं होती। 'सिद्धभगवान केवल आत्मा को जानते हैं बाझार्थ को नहीं जानते' ऐसे दूर्नय के निवारणार्थ "बुझंति" सिद्धों का ऐसा विशेषण सत्र में दिया गया है (षट्खंडागम पुस्तक ६ पृष्ठ ५०१)। यदि जिनेन्द्र देव का ( केवली का ) ज्ञान सर्व क्षेत्र के तीनों काल के समस्त पदार्थों को एक साथ सदा नहीं जानता तो ज्ञान का माहात्म्य ही क्या हुआ ? अर्थात् केवलज्ञान तीनों लोक और तीनों काल के सर्वपदार्थों को युगपत जानता है। परपदार्थ को जानने की अपेक्षा से सर्वज्ञता यद्यपि व्यवहारनय से अथवा उपचार से है किन्तु यह व्यवहारनय का या उपचार का कथन वास्तविक है, कपोलकल्पित नहीं है।
-जें. सं. 21-8-58/V/मोखिक चर्चा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org