Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
१७. ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : स्वरूप साता वेदनीय का बंध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय की सहकारता होने से असाता का उदय प्रतिहत हो जाता है । धवल पुस्तक १३, पृ० ५३ व जयधवल पु० ३, पृ० ६९ ।
-जै. सं. 30-10-58/V/अ. चं. ला.
केवली के प्रघातिया कर्मों का क्षय स्वपर निमित्त से होता है
शंका -केवली के चार अघातिया कर्म अपने आप नष्ट होते हैं या वे स्वयं केवली नष्ट करते हैं ? अपने आप नष्ट होते हैं तो वे अपने स्वकाल से ही नष्ट होते हैं क्या ? अर्थात् उनकी तरह से सबकी अपनी अपनी पर्याय निश्चित है या नहीं? केवली भगवान स्वयं नष्ट करते हैं ऐसा माने तो केवली विकारमय ठहरते हैं?
समाधान-केवली के चार अधातियाकर्म, एकान्त से न तो अपने आप नष्ट होते हैं और न एकान्त से केवली ही नष्ट करते हैं। चार अघातिया कमों के नष्ट होने में अंतरंग कारण तो स्वयं कर्म है और बाह्य कारण अनेक प्रकार हैं। उन सब अंतरंग व बहिरंग कारणों के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है। यदि उन सब कारणों में से एक कारण की भी कमी रहगई तो कार्य की सिद्धि नहीं हो सकेगी। यदि एकान्त से चारों अघातिया कर्म स्वयं नष्ट होते तो केवली समूद्घात का सर्वथा अभाव पाया जाता। किन्तु केवली समूद्घात ह है कि 'एकान्त से चार अघातिया कर्म अपने आप नष्ट नहीं होते। केवली समुद्घात में कर्मों की स्थिति और अनुभाग का घात होता है। जिन कर्मों का बहुतकाल में घात होता उन कर्मों का केवली समुद्घात द्वारा एक समय में घात हो जाता है' ( षट्खंडागम पुस्तक १, पृष्ठ ३०० व ३०१ ) केवली समुद्घात के पश्चात् संयोगकेवली गुणस्थान के अन्त तक स्थिति कांडक द्वारा एक एक अन्तर्मुहूर्त स्थिति का घात होता है (षट्खंडागम पुस्तक ११, पृष्ठ १३३-१३४ ) । अन्य कारण बिना, एक ही के आप ही ते उपजना विनशना होय नाहीं ( आम मीमांसा पृष्ठ ३४ अनन्तकोति ग्रन्थमाला) भावान्तर की प्राप्ति उभयनिमित्त (अंतरंग बहिरंग ) के वश से होती है। ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५, सूत्र ३० ) इन उपरोक्त आगमप्रमाणों से सिद्ध है कि केवली के चार अघातिया कर्मों का नाश स्वपर निमित्त से होता है।
केवली के चार अघातिया कर्म स्वकाल से भी नष्ट होते हैं और स्वकाल के बिना भी नष्ट होते हैं, क्योंकि बहतकाल' में घात होनेवाले कर्मों का एक समय में घात होता है (षट्खंडागम पुस्तक ६, पृष्ठ ४१२)। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य की पर्याय स्वकाल से भी होती है। और स्वकाल के बिना भी होती है। प्रवचनसार के अन्त में 'कालनय' व 'अकालनय' दोनों नय कही गई हैं। दोनों नयों में से किसी एक के पक्ष की हट करना एकान्त मिथ्यात्व है।
जिस प्रकार उभयनिमित्तवशात् केवली भगवान खड़े होते हैं, बैठते हैं, विहार करते हैं, उपदेश देते हैं उसी प्रकार उभयनिमित्तवशात् केवली भगवान कर्मों को नष्ट करते हैं। कहा भी है—'अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु के शेष रहने पर केवली समुदघात को करते हैं। इसमें प्रथम समय में दण्ड समुद्घात को करते हैं। उस समय दण्ड समदघात में वर्तमान होते हुए आयु को छोड़कर शेष तीन अघातियाकर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को 'हणदि' नष्ट करते हैं। इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अन्तिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति सम्बन्धी अनुभाग के अनन्त बहभाग को भी नष्ट करते हैं । इसीप्रकार कपाट आदि समुद्घात में भी नष्ट करते हैं (षट्खंडागम पुस्तक ६ पाठ ४१२-४१३)। विहारादि करते हुए भी जिसप्रकार केवली विकारमय नहीं होते। उसीप्रकार कर्मों को नष्ट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org