Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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देव और मनुष्यों के सुख से अधिक सुख का उत्पादक है, इसलिये ईर्यापथ-कर्म को 'अत्यधिक साता रूप' कहा है अर्थात् सयोग केवली भगवान साता प्रकृति रूप कार्मण वर्गरणा को ग्रहण करते हैं । अन्यत्र भी कहा है"अटुण्णं कम्माणं समयपबद्धपवेसेहितो ईरियावह समयपबद्धस्स पदेसा संवेज्जगुनाहोंति, सादं मोत्तूण असि बंधाभावो ।"
श्राठों कर्मों के समयबद्धप्रदेशों से ईर्ष्यापथ-कर्म के समय प्रबद्धप्रदेश संख्यात गुणे होते हैं, क्योंकि यहाँ सातावेदनीय के सिवाय अन्य कर्मों का बन्ध नहीं होता ।
अप्पं वादर मवु बहुअं लहुक्खं च सुविकलं चेव । मंवं महत्वयं पिय सादन्महियं च तं कम्मं ॥
वह ईर्यापथ कर्म अल्प है, वादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मधुर है, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक साता रूप है ।
केवली भगवान भाषा वर्गरणा को ग्रहरण करते हैं। वह भाषा वर्गणा चार प्रकार की है ।
"भाषा दव्ववग्गणा सच्च मोस - सच्च मोस - असच्चमोस भेदेण चउविहा । एवं चउब्विहतं कुवो णव्वदे ? च उब्विहं भासा कज्जण्णहाणुववत्तीवो ।” धवल पु० १४ पृ० ५५० ।
भाषाद्रव्य वर्गरणा सत्य, मोष, सत्यमोष और असत्यमोष ( अनुभय ) के भेद से चार प्रकार की है, क्योंकि चार प्रकार का भाषारूप कार्य अन्यथा बन नहीं सकता ।
केवली भगवान की दिव्यध्वनि सत्यभाषा रूप व ग्रसत्यमोष ( अनुभय ) भाषा रूप होती है अतः केवली भगवान सत्यभाषा वर्गणा तथा असत्यमोष ( अनुभय ) भाषा वर्गणा को ग्रहण करते हैं ।
केवली भगवान के द्रव्यमन होता है । द्रव्यमन की स्थिति के लिये मनोद्रव्य वर्गणा का ग्रहण होता है । मनो वर्गणा भी सत्य, मोष, सत्यमोष उभय ) सत्यमोष ( अनुभय ) के भेद से चार प्रकार की है ।
"मणदव्ववग्गणा चउब्विहा सञ्चमणपाओग्गा, मोसमणपाओग्गा, सच्चामोस मणपाओग्गा, असच्च मोसम - पाओग्गामणदव्ववग्गणादोणित्पज्जमाणस्स चउब्विभावण्णहाणुववत्तीदो ।" धवल १४ पृ० ५५२ ।
इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है । केवली भगवान के सत्य मनोयोग और असत्यमोष ( अनुभय ) मनोयोग होता है अतः केवली भगवान सत्य मनो वर्गणा व असत्यमोष ( अनुभव ) मनोवर्गरणा को ग्रहण करते हैं। कहा भी है
"मण जोगो सच्च मणजोगो असच्च मोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्टि पहूडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ॥५०॥ भवतु केवलिनः सत्यमनोयोगस्य सत्वं तत्र वस्तुयाथात्म्यावगतेः सत्वात् । नासत्यमोष- मनोयोगस्य सत्यं तत्र संशयानध्यवसाययोरभावादिति न संशयानध्यवसाय निवन्धनवचनहेतुमनसोऽप्यसत्यमोषमनस्तवमस्तति तत्र तस्य सत्वाविरोधात् । भवतु द्रव्यमनसः सत्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभावः अपितु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वाभावात् । तेनात्मनो योगः मनोयोगः । विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्नः
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