Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-अन्तरकरणविधि के हो जाने पर प्रथम समय से लेकर ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा नपुंसक वेद का उपशम करता है। तदनन्तर एक अन्तमुहर्त जाकर नपुंसक वेद की उपशमविधि के समान ही स्त्री वेद का उपशम करता है। फिर एक अन्तर्मुहूर्त जाकर उसी विधि से पुरुष वेद के साथ प्राचीन सत्ता में स्थित कर्म के साथ छह नो कषाय का उपशम करता है।
जस्सुदएण यचडिदो तम्हि य उक्कट्टियम्हि पडिऊण ।
अन्तरमाऊरेदि हु एवं पुरिसोदए चडिदो ॥ ३५७ ॥ जिस कषाय व वेद के उदय सहित चढ़ के पड़ा हो उसी कषाय व वेद के द्रव्य का अपकर्षण होने पर अन्तर को पूरता है।
-जं. ग. 14-12-72/VII/क. दे. श्रेणी के गुणस्थानों पर चढ़े हुए जीव भी अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल तक भूमण कर सकते हैं
शंका-उपशम श्रेणी से गिरकर जीव क्या संसार में अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण कर सकता है ?
समाधान-उपशम श्रेणी से गिरकर जीव संसार में अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक परिभ्रमण कर सकता है । षटखण्डागम में कहा भी है
चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ॥१५॥
अर्थ -उपशम श्रेणी के चारों उपशामकों ( आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थानों ) का अन्तर कितने काल तक होता है ? उक्त चारों उपशामकों का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल है।
इस सूत्र की टीका में श्री १०८ वीरसेन महानाचार्य ने इस प्रकार कहा है-"एक अनादि मिथ्याष्टि जीव ने तीनों ही करण करके उपशम सम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त होने के प्रथम समय में ही अनन्त संसार को छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र करके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अप्रमत्त-संयत के कालका अनुपालन किया । पश्चात् प्रमत्तसंयत हुआ । वेदकसम्यक्त्वी होकर पुनः उपशमितकर अर्थात् द्वितोयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सहस्रों प्रमत्त-अप्रमत्त परावर्तनों को करके उपशम श्रणी के योग्य अप्रमत्त संयत हो गया। अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्त कषाय हो गया। वहां से गिरकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय अनिवृत्तिकरण अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती हो गया। पश्चात् नीचे गिरकर अन्तर को प्राप्त हुआ और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल प्रमाण परिवर्तन करके अन्तिम भवमें दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों का क्षपण करके अपूर्व करण उपशामक हुआ। इस प्रकार कूछ कम अर्धपुदगल परिवर्तन मात्र अन्तर काल उपलब्ध हो गया।" धवल पु०५ पृ० १९.२० ।
धवल जैसे महान् ग्रन्थ के उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल शेष रहने पर सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व परिणाम के द्वारा अनन्त संसार काल को छेद कर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र कर दिया जाता है और इस अर्धपुद्गल परिवर्तन काल के प्रारम्भ में और अन्त में उपशम
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