Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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श्री अरहंत के पूर्व पश्चात् आदि विकल्पात्मक परोक्ष ज्ञान का प्रभाव
शंका - सत्ता सामान्य की अपेक्षा से सब पदार्थ परस्पर में सदृश हैं, यह अमुक अमुक पदार्थों से बड़ा है और अमुक अमुक पदार्थों से छोटा है। अक्टूबर के पश्चात् नवम्बर का माह आवेगा और नवम्बर के पश्चात् दिसम्बर होगा, उसके पश्चात् सन् १९६८ नवीन वर्ष प्रारम्भ होगा, अक्टूबर से पूर्व सितम्बर था, आज अक्टूबर की तीन तारीख है, आश्विन कृष्णा चतुर्थी है, सोमवार है, कल को मंगल होगा, कल रविवार था, इत्यादि विकल्प रूप ज्ञान क्या श्री अरहंत भगवान को है ?
समाधान - सरशता, गुरु, लघु, हीनाधिक, परत्वापरत्व पूर्व और पश्चात् श्रादि उपर्युक्त प्रश्न में कहे गए विकल्प सब परोक्ष ज्ञान के विकल्प हैं । कहा भी है
" परोक्ष मितरत् ॥१॥ प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदम् ॥२॥
दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेवं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ॥ ५॥ - परीक्षामुख, तीसरा अधिकार
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ - जो प्रत्यक्ष से इतर अर्थात् प्रतिपक्ष है वह परोक्ष प्रमाण (ज्ञान) है। उसके पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । वर्तमान में पदार्थ का दर्शन और पूर्व में देखे हुए का स्मरण इन दोनों कारणों से संकलन अर्थात् अनुसन्धान रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे यह वही है, यह एकत्व प्रत्यभिज्ञान है । यह उसके सदृश है, यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है । यह उससे विलक्षण है, यह वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान है । यह उस का प्रतियोगी है, यह प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान है, इत्यादि ।
प्रश्न कर्ता ने अपने प्रश्न में जितने भी विकल्प उठाये हैं वे सब परोक्ष ज्ञान स्वरूप हैं जो प्रायः प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होते हैं । श्री १००८ अरहंत भगवान के सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है, उनके परोक्ष ज्ञान नहीं है, क्योंकि परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रतिपक्षी है । इसलिए श्री १००८ अरहंत भगवान के पूर्व पश्चात् श्रादि विकल्पात्मक परोक्ष ज्ञान नहीं है ।
-जै. ग. 22-2-68 / VI / मुमुक्षु
केवली सर्वज्ञ है, और श्रात्मज्ञ भी
शंका-केवली आत्मज्ञ ही है या सर्वज्ञ भी है ?
समाधान - निश्चय नय की अपेक्षा केवली आत्मज्ञ ही है किन्तु उपचरित-प्रसद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा सर्वज्ञ है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है
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जाणदि पस्सदि सम्वं ववहारणएण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अध्याणं ।। १५९ ॥ | नियमसार
अर्थ-व्यवहारनय मे केवली भगवान सब ज्ञेयों को जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चय नय से केवलज्ञानी श्रात्मा को ही जानते देखते हैं ।
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