Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्राप्त होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । पुनः अन्तर्मुहूर्त पश्चात् क्षयोपशम सम्यक्त्व को और चारित्र को प्राप्त हो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम कर अर्थात् उपशांत मोह गुणस्थान को प्राप्त करके और वहाँ से गिरकर सासादन को प्राप्त होने पर एक जीव की अपेक्षा सासादन का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है । इस पर आचार्य वीरसेन उत्तर देते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उपशम श्रेणी से उतरने वाले जीवों के सासादन में गमन करने का प्रभाव है । यह ग्रभिप्राय श्री भुतबली आचार्य के इसी सूत्र से जाना जाता है ।
श्री यतिवृषभाचार्य मतानुसार उपशान्त मोह से गिरकर सासादन को प्राप्त हो सकता है । जयधवल पु० १० पृ० १२३ पर चूर्णसूत्र व उसको टीका निम्नप्रकार है
"जइ सो कसायउवसामणादो परिवदिदो, दंसणमोहणीय उवसंतद्धाए अचरिमेसु समएस आसाणं गच्छ तदो आसाणगमणादो से काले पणुवीसं पयडीओ पविसंति ।"
" कसायोवसमणावो परिवविदस्स बंसणमोहणीयउवसंतद्धा अतोमुहुत्ती सेसा अस्थि तिस्से छावलियावसेसाए प्पहूडि जाव दद्धाचरिमसमयो ति ताव सासणगुरोण परिणामेतुं संभवो । कसायोवसामणादो परिवदिदो उवसंतदंसणमोहणीयो दंसणमोहउवसंतद्धाएं बुचरिमाविहेट्टिमसमएसु जइ आसाणं गच्छइ तदो तस्स सासणभाव पडिवण्णस्स पढमसमए अनंतायुबंधीणमण्णदरस्स पवेसेण बावीसपवेसद्वाणं होइ । कुवो तत्थागंतानुबंधीणमण्णदरपवेसनियमो ? ण सासणगुणस्स तहृदयथाविणाभादित्तादो। कथं पुव्वमसंतस्साणताणुबंधिकसायस्स तत्युदयसंभवो ? ण, परिणामपाहम्मेण सेसकषायदध्वस्स तक्कालमेव तदायारेण परिणमिय उदयदंसणादो ।" जयधवल पु० १० पृ० १२३-१२४ ।
अर्थ -- यदि वह कषायों की उपशामनासे ( उपशांत मोह से ) गिरता हुआ दर्शनमोहनीय के उपशामना काल के अचरम समयों में सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है तो उसके सासादन गुणस्थान में जाने के एक समय पश्चात् २५ प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । कषायोपशामना ( उपशांत मोह ) से गिरे हुए जीव के दर्शनमोहनीय के उपशमना का काल अन्तर्मुहूर्त शेष बचता है । उसमें जब छह आवलि शेष रहें वहाँ से लेकर उपशामना काल के अन्तिम समय तक सासादन गुणरूप से परिणमन करना सम्भव है । कषायोपशामना से गिरता हुआ उप मोहनीय जीव के दर्शनमोह के उपशमना के काल के अन्तर्गत द्वि चरम आदि अधस्तन समयों में यदि सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है तो सासादन भाव को प्राप्त होने वाले उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धियों में से किसी एक प्रकृति का प्रवेश होने से बाईस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होता है । सासादन गुणस्थान के साथ अनन्तानुबंधी कषाय के उदय का अविनाभावी संबंध होने के कारण अनन्तानुबंधियों की किसी एक प्रकृति के प्रवेश का नियम है । परिणामों के माहात्म्यवश शेष कषायों का द्रव्य उसी समय अनन्तानुबंधी कषाय रूप से परिणम कर अनन्तानुबंधी का उदय देखा जाता है अतः पूर्व में सत्ता से रहित अनन्तानुबंधी कषाय का सासादन के प्रथम समय में उदय सम्भव है ।
विपरीत अभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व तथा धनन्तानुबंधी इन दोनों के उदय के निमित्त से उत्पन्न होता है । सासादन में अनन्तानुबंधी का उदय पाया जाता है । धवल पु० १ पृ० ३६१ अतः सासादन से गिरकर मिथ्यात्व में ही आता है। ऐसा नियम है ।
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- जै. ग. 5-1-70 / VII / का. ना. कोठारी
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