Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उत्तर-नहीं, क्योंकि इस षट् खंडागम के सूत्र ३६ में एकेन्द्रियादिकों के सासादन गुणस्थान का निषेध किया है।
प्रश्न-जब दोनों वचन परस्पर विरोधी हैं तो उन्हें सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि दोनों वचन सूत्र नहीं हो सकते हैं, किन्तु उन दोनों वचनों में से किसी एक वचन को ही सूत्रपना प्राप्त हो सकता है।
प्रश्न-दोनों वचनों में यह वचन सूत्र रूप है और यह नहीं है, यह कैसे जाना जाय ?
उत्तर-उपदेश के बिना दोनों में से कौन वचन सूत्र रूप है यह नहीं जाना जा सकता है, इसलिये दोनों वचनों का संग्रह करना चाहिये।
प्रश्न-दोनों वचनों का संग्रह करने वाला संशय-मिथ्यादृष्टि हो जायगा?
उत्तर-नहीं, क्योंकि संग्रह करने वाले के 'यह सूत्र कथित ही है' इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है। कहा भी है-सूत्र के द्वारा भले प्रकार समझाये जाने पर भी यदि वह जीव विपरीत अर्थ को छोड़कर समीचीन अर्थ का श्रद्धान नहीं करता है, तो उसी समय से वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान के विषय में दोनों कथन हैं, इन दोनों को ही लिखना चाहिये।
-जं. ग. 27-7-69/VI/सु. प्र.
सम्यग्मिथ्यात्व "जात्यन्तर" कैसे ?
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व को जात्यन्तर सर्वघाति प्रकृति कही है, इसका क्या कारण है ? अन्य सर्वघाति प्रकृतियों और इसमें क्या अन्तर है ?
समाधान-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिश्र भाव (सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दो विरुद्ध भावों के संयोग से उत्पन्न हुए भाव ) उत्पन्न होता है, अतः सम्यग्मिथ्यात्व को जात्यन्तर-प्रकृति कहा गया है। इसके उदय में सम्यग्दर्शन के एक देश का अभाव रहता है अतः इसको सर्वघाति कहा गया है। अथवा इस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में सम्यक्त्व के अंश का सद्भाव पाया जाता है इस अपेक्षा से यह सर्वघाति नहीं भी है, सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति किसी अपेक्षा सर्वघाति है और किसी अपेक्षा सर्वघाति नहीं है, इसलिये भी इसको जात्यन्तर कहा गया है। अन्य सर्वधाति प्रकृतियाँ मिश्ररूप नहीं हैं इसलिये उनको जात्यन्तर नहीं कहा गया है। आगम प्रमारण इसप्रकार है
सम्मामिच्छादिद्विति को भावो? खओवसमिओ भावो ॥१२॥ कुदो ? सम्ममिच्छत्त वये संतेवि सम्मस रोगदेसमूवलंभा। सम्मामिच्छत्तभावे पत्तजच्चंतरे अंसंसीभावोणस्थि ति ण, तत्व सम्महसणस्स एगवेस इदि चे;
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