Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
१२० ]
चारों ही गतियों की आयु में से किसी भी गति की प्रायु बंध होने पर सम्यक्त्व तो हो सकता है परन्तु देव आयु के अतिरिक्त अन्य तीन गति सम्बन्धी आयु बंध हो जाने पर अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता । - जै. ग. 27-11-75 / V / ........
(१) असंयत समकिती के शल्य सम्भव है (२) मायाशल्य एवं मायाकषाय में अन्तर
शंका - माया शल्य और माया कषाय में क्या अन्तर है ? क्या शल्य मिथ्यादृष्टि के ही होती है सम्यग्दृष्टि के शल्य नहीं होती ?
समाधान- पीड़ा देने वाली वस्तु को शल्य कहते हैं । काँटे आदि के समान जो चुभती रहे, शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण हो उसे शल्य कहते हैं । कहा भी है
शृणाति प्राणिनं यच्च तत्वज्ञ:
शल्यमीरितम् । शरीरानुप्रविष्ट हि काण्डादिकमिवाधिकम् || ४/४ ॥ सिद्धान्तसार
अर्थ- जो प्राणियों को पीड़ा देता है वह शल्य है, ऐसी तत्त्वज्ञों ने शल्य शब्द की व्याख्या की है, जैसे शरीर में घुसा हुआ वापादिक शल्य प्राणी को अधिक व्यथित करता है, वैसे ही माया, मिथ्यात्व निदान ये तीन शल्य प्राणी को दुःख देते हैं, इसलिये ये शल्य हैं ।
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व्रती के यद्यपि माया कषाय का उदय होता है तथापि वह इतनी मायाचारी या कपट नहीं करता जो निरंतर उसके चुभती रहे । यदि व्रती से कोई कपट हो भी जाता है तो वह तुरन्त प्रायश्चित द्वारा उस दोष को धो डालता है और व्रत को स्वच्छ कर लेता है । किन्तु अव्रती प्रायश्चित द्वारा उस माया भाव को दूर नहीं करता । इसलिये उसके माया शल्य बना रहता है । शल्य का कथन व्रती और अव्रती की अपेक्षा से है, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा से शल्य का वर्णन नहीं है । क्योंकि शल्यरहित व्रती होता है, ऐसा आर्ष वाक्य है । तत्त्वार्थ सूत्र ७/१८ | किन्तु शल्य रहित सम्यग्दृष्टि होता है; ऐसा आर्ष वाक्य नहीं है ।
- जै. ग. 26-6-67 / IX / र. ला. जैन, मेरठ
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असंयत सम्यक्त्वी हेय बुद्धि से विषय भोग करता है
शंका- चौथे गुणस्थान में विषयभोग बुद्धिपूर्वक होते हैं या अबुद्धिपूर्वक होते हैं ?
समाधान --- चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय रहता है जिसके कारण वह विषय-भोग का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु विषय भोग को हेय तथा त्याज्य मानता है । इसलिये वह अप्रत्याख्यानावरण के उदय की बरजोरी से प्रात्म-निन्दा पूर्वक विषय-भोगों में इन्द्रिय-सुख का अनुभव करता है, जैसे कोतवाल द्वारा पकड़ा हुआ चोर, कोतवाल की बरजोरी से, अपना मुँह भी काला करता है और अन्य क्रिया भी करता है । कहा भी है
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