Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४३
णट्रासेस-पमाओ वय-गुण-सीलोलि-मंडिओ गाणी। अणुवसमओ अक्खवओ झाणणिलीणो ह अपमत्तो ॥४६ ॥ गो० जी०
अर्थ-जिसके समस्त प्रमाद नष्ट हो गये हैं, जो व्रत, गुण और शीलों से मण्डित है जो निरन्तर आत्मा और शरीर के भेद विज्ञान से युक्त है, जो उपशम और क्षपक श्रेणी पर आरूढ नहीं हुआ है और जो ध्यान में लवलीन है उसे अप्रमत्त संयत कहते हैं।
-जें. ग. 27-6-66/IX/ शा. ला.
३२ बार संयम; भावसंयम की अपेक्षा कहा है
शंका-कर्मकाण्ड गाथा ६१९ में लिखा है कि ३२ भव में मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष जाता है, तब ३२ भव का नियम सादि मिथ्यादृष्टि के लिये है या अनादि मिथ्यादृष्टि के लिये है ?
समाधान-गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ६१९ इस प्रकार है ।
चतारिवारमुवसमसेढि समरूहिद खविदकम्मंसो।
वत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिवादि ॥ ६१९ ॥ भव्य जीव मोक्ष जाने से पूर्व अधिक से अधिक चार बार उपशम श्रेणी चढ़ सकता है और ३२ बार सकल संयम धारण कर सकता है, उसके पश्चात् वह नियम से कर्म-क्षय कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
इस गाथा में तो यह कथन नहीं है कि मिथ्यादृष्टि ३२ भव में मोक्ष जाता है, अतः सादि मिथ्याइष्टि या अनादि मिथ्यादृष्टि का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।
-जं. ग. 1-1-76/VIII/........
क्षपक से उपशमक की विशुद्धि में अन्तर
शंका-क्षपक श्रेणी के जीवों के परिणामों में और उपशम श्रेणी के परिणामों में क्या अन्तर है और . यह किस प्रकार जाना जाता है ?
समाधान-क्षपक श्रेणी के जीवों के परिणाम उपशम श्रेणी के जीवों के परिणामों से अधिक विशद्ध होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र अ० ९ सूत्र ४५ में उपशमक और उपशांत मोह से क्षपक श्रेणी वाले के असंख्यातगुणी निर्जरा बतलाई है। क्षपक श्रेणी वाला सवेद अनिवृत्तिकरण के अन्त में पुरुष वेद का स्थिति बंध पाठ वर्ष और संज्वलन चौकड़ी का १६ वर्ष स्थिति बंध करता है ( गाथा ४५४ लब्धिसार )। जब कि वहाँ पर उपशम श्रेणी वाला परुषवेद का स्थिति बंध १६ वर्ष और संज्वलन चतुष्क का ३२ वर्ष स्थिति बंध करता है (गाथा २६० लब्धिसार)। इसप्रकार एक ही स्थान पर स्थिति बंध भी दुगुना होता है, इससे भी जाना जाता है कि विशुद्धि में अन्तर है। विद्धि में अन्तर होने के कारण एक चारित्र-मोहनीय कर्म का उपशम करता है और दूसरा क्षय करता है।
-जै. ग. 10-7-67/VII/र. ला. जैन मेरठ
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