Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इस प्रकार पूर्वकरण के और अनिवृत्तिकरण के भिन्न-भिन्न समयों में स्थित जीवों के परिणाम विवश ही होंगे, सदृश नहीं होंगे। अनिवृत्तिकरण के एक समय में स्थित नाना जीवों के परिणाम सदृश ही होंगे, क्योंकि एक ही प्रकार की विशुद्धता है । किन्तु अपूर्वकरण के एक समय में स्थित नाना जीवों के परिणामों की सदृशता का कोई नियम नहीं है, क्योंकि एक समय में प्रसंख्यात प्रकार की विशुद्धता है। जिन जीवों के परिणाम की विशुद्धता एक प्रकार की होती है उनके परिणाम सदृश होंगे और जिन जीवों के परिणामों की विशुद्धता हीनाधिक है उनके परिणाम विश होंगे, इसलिये अपूर्वकरण के एक समय वाले नाना जीवों के परिणामों में सदृशता या विदृशता का कोई नियम नहीं है, वे सदृश भी हो सकते हैं, विश भी ।
- जै. ग. 10-12-70/ VI / रो. ला. मि.
नवकसमयप्रबद्ध
शंका-नवक समय प्रबद्ध के सम्बन्ध में किस ग्रन्थ में क्या वर्णन है और यह कब होता है ?
समाधान-नवक समय प्रबद्ध उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में पुरुष वेद, क्रोध, मान, माया का होता है; क्योंकि इन प्रकृतियों का उपशम या क्षय पर प्रकृति रूप संक्रमण होकर उपशम या क्षय होता है । पुरुषवेद के उदय के अन्तिम समय तक पुरुष वेद का बंध होता रहता है, उस बंध में से एक समय कम २ आवलि मात्र बंध का पर प्रकृति रूप संक्रमण नहीं हो पाता, क्योंकि बंध से एक प्रावलिकाल तक तो संक्रमण आदि का अभाव है क्योंकि वह अचलावलि या बंधावलि है और एक आवलि पश्चात् दूसरी प्रावलि में फाली द्वारा संक्रमण होता है । इस तरह एक समय कम दो आवलिकाल में जो पुरुष वेद का बंध हुआ है उसको नवकसमयप्रबद्ध के नाम से कहा गया है । इसका कथन धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ३६४ तथा लब्धिसार क्षपणासार गा० २७१ व २७७ की टीका
में भी है।
नोकषायें अनन्तानुबन्धी श्रादि कषायों के साथ नष्ट नहीं होती
जाती
शंका- साधु की जब कषाय की तीन चौकड़ी खत्म हो जाती हैं और एक चौकड़ी संज्वलन की रह है और नव नोकषाय रह जाती हैं। जब नव नोकषायों को ईषत् कषाय कहा है तो इनको तो अनन्तानुबन्धी कषाय या प्रत्याख्यान के साथ ही चला जाना चाहिये था। क्या वजह है जो ये आखिर तक बनी रहती हैं ?
समाधान- इस जीव का सबसे बड़ा अकल्याणकारी मिध्यात्व है। कहा भी है
न सम्यक्त्वसमं किंचित् बैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रयोऽश्रयश्च
- जै. ग. 15-1-78 / VIII / शा. ला.
मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ॥ ३४ ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अर्थ - तीनों कालों में और तीनों लोकों में जीव को सम्यक्त्व के समान कोई दूसरा कल्याणकारी
नहीं है ।
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श्रतः सर्व प्रथम सम्यक्त्व की घातक मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का नाश किया जाता है । मानव इन्द्रियों के विषय तथा सर्वजाति कषाय जिनके कारण सम्यग्दृष्टि जीव भी कर्मों का क्षय नहीं कर पाता
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