Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "अप्रमाद" संज्ञा कहाँ से ? शंका-जब कि प्रमाद का अभाव पूर्णरूप से चौदहवें गुणस्थान में होता है फिर सप्तम गुणस्थान को अप्रमत्त कैसे कहा?
समाधान--सप्तमगुणस्थान में बुद्धिपूर्वक प्रमाद का प्रभाव हो जाता है अतः बुद्धिपूर्वक प्रमाद के अभाव की अपेक्षा सप्तम गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहा है।
-जं. ग. 7-10-65/X/प्रेमचन्द
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रमाद नहीं है
शंका-सातवें गुणस्थान का अप्रत्तसंयत नाम क्यों है ? जबकि वहाँ पर संज्वलनकषाय का बन्ध व उदय होने से प्रमाद है।
समाधान- अच्छे कार्यों के करने में आदर भाव का न होना यह प्रमाद है। कहा भी है
"स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः।" सर्वार्थसिद्धि ८/१।
प्रथम गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक के जीव प्रमत्त हैं और सातवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अप्रमत्त हैं। कहा भी है
"प्रमत्त-शब्देन मिथ्यादृष्ट्यादि-प्रमत्तांतानि षड् गुणस्थानानि, अप्रमत्त-शब्देन पुनरप्रमत्ताद्ययोग्यतान्यष्टगुण-स्थानानि गृह्यन्ते ।" समयसार गाथा ६ टीका।
अर्थ--प्रमत्त शब्द मे मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान से प्रमत्त संयत छठे गुणस्थान तक ग्रहण करना चाहिये। अप्रमत्त शब्द से अप्रमत्त संयत सातवें गुणस्थान से अयोग केवली चौदहवें गुणस्थान तक ग्रहण करना चाहिये।
यद्यपि प्रथम गुणस्थान से छठवें गुणस्थान तक प्रमाद है, किन्तु यह उत्तरोत्तर मंद होता चला गया है। छठे गुणस्थान में प्रमाद इतना मंद हो गया है कि वह संयम को घात करने में समर्थ नहीं है, कहा भी है
"न हि मन्दतमः प्रमादः क्षणक्षयी संयम-विनाशकोऽसति विबन्धर्यनुपलब्धेः।" धवल पु०१ पृ० १७६ ।
अर्थ-छठे गुणस्थान में होने वाला स्वल्पकालवर्ती मंदतम प्रमाद संयम का नाश भी नहीं कर सकता है. क्योंकि सकलसंयम का उत्कटरूप प्रतिबन्ध करने वाले प्रत्याख्यानावरण कर्म के अभाव से संयम का नाश नहीं पाया जाता।
जब छठे गुणस्थान में प्रमाद मंदमत हो गया तो सातवें गुणस्थान में उसका सद्भाव संभव नहीं है। दूसरे सातवें गुणस्थान में ध्यान अवस्था होने से संज्वलन कषाय का उदय भी मंद होता है, इसलिये भी वहाँ प्रमाद नहीं हो सकता। कहा भी है
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