Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उसी समय निद्रा की उदीरणा होगी; अर्थात निद्रा के उदय व उदीरणा साथ-साथ होंगे। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कोई भी जीव एक अन्तमुहर्त काल से अधिक निद्रा नहीं ले सकता और एक अन्तमुहूर्त से अधिक कोई भी जीव जागृत भी नहीं रह सकता। अत: मुनि भी एक अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक निद्रा अवस्था में नहीं रह सकते। इस अन्तमुहर्त का प्रमाण इस प्रकार ज्ञात हो सकता है:
क्षपक के जघन्य काल [ १ सैकण्ड ] से उत्कृष्ट दर्शनोपयोग का काल विशेषाधिक है। उससे चाक्षुष ज्ञानोपयोग का काल दूना है। इससे श्रोत्र-ज्ञानोपयोग का काल विशेषाधिक है। उससे घ्राणेन्द्रिय ज्ञानोपयोग व जिह्वन्द्रियज्ञानोपयोग क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। इससे मनोयोग, वचनयोग व काययोग का काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक है। काययोगकाल से स्पर्शनेन्द्रियज्ञानोपयोग, अवायज्ञानोपयोग, ईहा ज्ञानोपयोग; ये क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं । ईहा ज्ञानोपयोग से श्रुतज्ञानोपयोग का काल दुगुना है ।
जयधवला पु० १ पृ० ३४९ पुरातन संस्करण एवं पृ० ३१८-१९ नवीन संस्करण ।
इस प्रकार दर्शनोपयोग [ १ सैकण्ड ], मतिज्ञानोपयोग [ २ सैकण्ड ] तथा श्रुतज्ञानोपयोग [ ४-५ सैकण्ड ] के कालों को जोड़ा जावे तो जाग्रत अवस्था का उत्कृष्ट काल करीब ८ सैकण्ड होता है । धवल० पु. १५ में निद्राकाल तथा निद्रा का अन्तर-काल दोनों अन्तमुहर्तप्रमाण कहे हैं, अर्थात् बराबर कहे हैं। अत: सुप्तावस्था का काल करीब ८ सैकण्ड होता है। अन्य जीवों की अपेक्षा मुनिराज के अल्प निद्रा होती है, अत: उनके उत्कृष्ट निद्रा-काल ८ सैकण्ड से कुछ कम हो सकता है।'
-पल, जून 78/I & II/ज ला. जैन भीण्डर
वस्त्रादिक के त्याग बिना सप्तम गुणस्थान नहीं होता
शंका-सातवाँ गुणस्थान कपड़े पहनेवाले के हो सकता है या नहीं ? कितने ही लोगों का कहना है कि पहले सातवाँ गुणस्थान होता है उसके बाद छठवां गुणस्थान होता है। मुनि होते समय कपड़े उतारते-उतारते बतलाते हैं । योगसार पृष्ठ ७१ में भी ऐसा लेख है कि चौथे गुणस्थान से ५ वाँ व ७ वाँ हो सकता है। सो किस अपेक्षा से है। मैंने फिरोजाबाद को पत्र दिया था समाचार आया कि यह कथन दिगम्बर अवस्था में होता है। सो इसका सम्यक् रीति से खुलासा करें।
समाधान-वस्त्र पहनेवाले के सातवाँ गुणस्थान नहीं हो सकता। छठे से चौदहवें गुणस्थान तक भावसंयमी होते हैं। अतः सातवाँ गुणस्थान भावसंयमी के ही होता है। भाव असंयम का अभिनाभावी वस्त्र है। वस्त्र पहनेवाले के भाव संयम नहीं हो सकता (षट्खण्डागम धवलसिद्धान्त ग्रन्थ पुस्तक १, पृष्ठ ३३३)। अतः वस्त्र पहननेवाले के सातवें गुणस्थान का अभाव है। सातवें गुणस्थानवाला द्रव्य व भाव से निग्रंथ होता है। वस्त्रत्याग के बिना भावनिग्रथता हो नहीं सकती (षट्खण्डागम पुस्तक ११, पृष्ठ ११४)। अतः बिना वस्त्रत्याग के सातवाँ गुणस्थान नहीं हो सकता। इसी प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने समयसार गाथा २८३-२८४ में कहा है, इनकी टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य लिखते हैं - 'जो निश्चय कर अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का दो प्रकार का
१. यह एक स्थूल गणना [ Rough Idea ] मात्र है, कोई इसे सूक्ष्मसत्य ( परमार्य स्वरूप) न समझ ले। आगम में मिनिट-सैकण्डों में काल-प्रमाण नहीं मिलता।
--सम्पादक
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