Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३३
दूसरे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय अनन्तानुबन्धी कषायोदय भी होती है अतः इन दो गुणस्थानों में यदि अप्रत्याख्यानावरण के साथ अनन्तानुबन्धी को भी असंयम का कारण कह दिया जाय तो कोई बाधा नहीं है । क्योंकि अनन्तानुबन्धी उस असंयम में अनन्त प्रवाह उत्पन्न कर रही है ।
यदि यह कहा जाय चतुर्थ गुणस्थान में जो निश्चल - अनुभूति होती है वही स्वरूपाचरण चारित्र है भ ही वह एक क्षण के लिए हो सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निश्चल - अनुभूति है वह वीतराग चारित्र है, चतुर्थ गुणस्थान में सराग चारित्र भी नहीं है वीतराग चारित्र की बात तो दूर रही ।
" सरागचारित्रं पुण्यबन्ध कारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य निश्चलशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपं वीतराग चारित्रम हमाश्रयामि ।" प्रवचनसार गाथा ५ को टीका ।
अर्थात् - सराग चारित्र पुण्य बन्ध का कारण है ऐसा जानकर उसको छोड़कर वीतराग चारित्र, जो कि निश्चल शुद्धात्मानुभूति रूप है उसका आश्रय लेता है ।
" निश्चलानुभूतिरूपं वीतरागचारित्रमित्युक्तलक्षणेन निश्चयरत्नत्रयेण परिणतजीवपदार्थ हे शिष्य ! स्वसमय जानीहि । पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयाभावास्तत्र यदास्थितो भवत्यय जीवस्तदा तं जीवं परसमय जानीहीति स्वसमयपरसमय लक्षणं ज्ञातव्य ।" समयसार गाथा २ टीका ।
जो निश्चल अनुभूति है वही वीतराग चारित्र है । ऐसे लक्षण वाले निश्चय रत्नत्रय से परिणत जीव को, हे शिष्य तू स्वसमय जान । जो जीव पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रय में स्थित नहीं है उसको परसमय जानो ।
इन
वाक्यों से सिद्ध है कि जो निश्चल- अनुभूति है वह वीतराग चारित्र का स्वरूप है । इसीलिये प्रवचनसार गाथा २२१ की टीका में "शुद्धात्मानुभूतिविलक्षण संयमः ।" इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि असंयमी के शुद्धात्मानुभूति नहीं होती है ।
इस पर भी असंयत सम्यग्दृष्टि के चतुर्थ गुणस्थान में निश्चल अनुभूति अथवा शुद्धात्मानुभूति कहना उपर्युक्त वाक्यों का अपलाप करना नहीं तो क्या है
अनुभवन या अनुभूति का अर्थ चेतनागुण भी होता है । आलापपद्धति में तथा टिप्पण में कहा भी है"चेतनस्य भावश्चेतनत्वम्, चैतन्यमनुभवनम् । चैतन्यमनुभूतिः स्यात् । अनुभूतिर्जीवाजीवादिपदार्थानां चेतनमात्रम् ।"
चेतन के भाव को चेतनत्व कहते हैं । चैतन्य का अर्थ अनुभवन है । वह चैतन्य ही अनुभूति है । जीव अजीव आदि पदार्थों की चेतना अनुभूति है । इस प्रकार अनुभवन या अनुभूति चेतना का पर्यायवाची नाम है ।
"ज्ञे यज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेन ।” प्रवचनसार गाथा २४२ की टीका ।
अर्थ -- ज्ञेय तत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथा प्रकार ( यथार्थ ) अनुभूति जिसका लक्षण है, वह ज्ञान की पर्याय है ।
इस प्रकार अनुभूति को चेतनागुण अथवा ज्ञान गुण की पर्याय भी कहा है। फिर 'अनुभूति' स्वरूपाचरण चारित्र अर्थात् चारित्र गुण की पर्याय कैसे हो सकती है ।
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