Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अविरत सम्यग्दृष्टि पंच पापों से भी विरक्त नहीं है । पाप दुःख के कारण हैं तथा दुःख स्वरूप हैं अतः आत्मा के शत्र हैं। श्री १०८ सकलकीर्ति आचार्य ने कहा है
पापं शत्रु परं विद्धि श्वभ्रतिर्यग्गति प्रदम् । रोगक्लेशादिभण्डारं सर्व दुःखकरं नृणाम् ॥ पापवतो हि नास्त्यस्य धनधान्यगृहादिकम् । वस्त्रालंकारसद्वस्तु दुःखक्लेशानि सन्ति च ॥
मनुष्यों के लिये नरक तिर्यंच गति को देने वाले, रोग-क्लेश आदि का भण्डार तथा समस्त दुःखों की खान स्वरूप पाप को सबसे बड़ा शत्रु जानो। पाप युक्त मनुष्य को धन-धान्य, घर आदिक तथा वस्त्र आभूषण आदि उत्तमोत्तम पदार्थ प्राप्त नहीं होते, इसके विपरीत दुःख और क्लेश प्राप्त होते हैं ।
मोक्षशास्त्र ७/९-१० तथा उसकी सर्वार्थसिद्धि टीका में भी कहा गया है--"हिंसाविष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् दुःखमेव वा ॥"
टीका-"अभ्युदयनिः श्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशकः प्रयोगोऽपायः । अवद्य गह्यम् ।"
सादिक पाँच पापों में इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी अपाय और अवद्या का दर्शन भावने योग्य है। स्वर्ग और मोक्ष की प्रयोजक क्रियाओं का विनाश करने वाली प्रवृत्ति अपाय है। अवद्य का अर्थ गद्य है। इस प्रकार ये पाँचों पाप इस लोक और परलोक दोनों लोकों में आत्मा का अहित करने वाले हैं। अथवा ये पाँचों पाप दुःख रूप ही हैं।
अविरत सम्यग्दृष्टि न तो पंचेन्द्रिय विषयों से और न पंच पापों से विरक्त है अतः उसके प्रात्मीक सख नहीं है और न आत्म-स्थिरता ( रमणता ) है; साता वेदनीय कर्मोदय के कारण इन्द्रिय जनित सुखाभास होता है।
अविरत सम्यग्दृष्टि को ज्ञान का फल सद्वृत्ति रूप चारित्र भी प्राप्त नहीं है, अतः उसका ज्ञान अपना कार्य न करने से निरर्थक है। श्री १०८ कुलभूषण आचार्य ने कहा भी है
परं ज्ञान फलं वृत्तं न विभूतिगरीयसी । तथा हि वर्धते कर्म सवृत्तेन विमुच्यते ॥
ज्ञान का फल उत्तम व्रत रूप चारित्र है, न कि विपुल धन का लाभ । विपुल धन के संयोग से तो कर्मबन्ध होगा जब कि सवत रूप चारित्र से कर्म-बन्ध का नाश होगा।
सम्यक चारित्र के अभाव के कारण अविरत सम्यग्दृष्टि के कर्म निर्जरा का अभाव है।
-जें. ग, 23-5-74 से 13-6-74/VII, II, VJ........
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