Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रिय विषयों से विरक्त नहीं है अतः वह सुखी नहीं है। परमार्थ से वह दु:खी है, अतः वह दुःख का वेदन करता है। वह पारमार्थिक सुख का वेदन नहीं करता है; किन्तु पारमाथिक सुख की उसे श्रद्धा है।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी कहा है
सम्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं । पाणित्तमदिकता णाणं विवंतिते जीवा ॥ पंचास्तिकाय गा० ३९
सर्व स्थावरकाय वास्तव में कर्मफल को वेदते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय [नारकी, देव, तिथंच तथा मनुष्य ]; ये जीव कर्मचेतना सहित कर्म-फल [ सुख-दुःख ] को वेदते हैं। प्राणों का अतिक्रमण करने वाले अर्थात केवलज्ञानी जीव ज्ञान को वेदते हैं।
"फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा" कर्मफल इन्द्रिय-जनित सुख व दुःख है ।
असंयत सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियों के विषयों को भोगता है, क्योंकि वह इन्द्रिय विषयों से विरक्त नहीं है। अथवा वह कर्मफल स्वरूप सुख-दुख को भोगता है।
असंयत सम्यग्दृष्टि चारित्र धारण नहीं करता है अतः वह राग-द्वेष से निवृत्त नहीं होता है। इस कारण वह रागद्वेष का वेदन करता है, उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। उसका सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान कुछ कार्यकारी नहीं है। कहा भी है-"यथा प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेनकूपपतनाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिा कि करोति, न किमपि । तथायं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्प रूपावसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा कि कुर्यान्न किमपीति ।"
जैसे दीपक रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूप पतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान रूप व दृष्टि ( ज्ञान ) कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई, वैसे यह जीव श्रद्धान और ज्ञान सहित भी है, परन्तु पौरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वषादि विकल्परूप असंयम भाव से अपने आपको नहीं हटाता है, तो श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन ) तथा ज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) उसका क्या हित कर सकते हैं ? कुछ भी हित नहीं कर सकते।
श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्य ने भी समयसार आत्मख्याति टीका में कहा है-"यदैवायमात्मास्रवयो दं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आसवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमाथिकतद्धवज्ञानासिद्ध:। ज्ञानं चेत किमासवेषु प्रवृत्तं किंवासवेभ्योनिवृत्तं । आसवेषु प्रवृत्तं चेत्तदपि तदभेवज्ञानान्न तस्य विशेषः।" स० सा० ७२ आ० ख्या०।
जिस समय प्रात्मा और आस्रवों का भेद जान लिया, उसी समय वह क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त हो जाता है। उन क्रोधादि आस्रवों से जब तक निवृत्त नहीं होता, तबतक उसके पारमाथिक ( सच्ची ) भेद ज्ञान की सिद्धि नहीं होती। यदि ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) है तो तेरी आस्रवों में प्रवृत्ति है या निवृत्ति ? यदि तू आस्रवों में प्रवर्तता है तो आत्मा और आस्रव के अभेद रूप अज्ञान से तेरे ज्ञान में कोई विशेषता नहीं हई अर्थात तेरा ज्ञान (भेदज्ञान) अज्ञान सदृश ही है।
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