Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
डढ़ वेष्टित होता है और दूसरा
दूसरे दृष्टान्त का अभिप्राय यह है-बर्मा का एक पार्श्वभाग रज्जु से पार्श्वभाग मुक्त होता है, वैसे ही तप से असंयत सम्यग्दृष्टि कर्म की निर्जरा करता है परन्तु असंयम भाव से उससे अधिक ( जितनी कर्म निर्जरा हुई उससे अधिक ) बहुतर कर्म ग्रहण किया जाता है तथा वह कर्म अधिक दृढ़ भी होता है । फलटन से प्रकाशित मूलाचार पृ० ४७६ ।
यहाँ पर यह बतलाया गया है ( व्रत रहित ) सम्यग्दृष्टि को अपना फल अधिकतर व दृढ़तर कर्मों का बंध होता है चरs णिरत्थयं सव्वं ।'
निरर्थक है ।
इस कथन से उनका खंडन हो जाता है जो अविरत सम्यग्दृष्टि को सर्वथा निरास्रव व बंध रहित
मानते हैं ।
कि जिस तप का फल कर्मों को निर्मूल कर देना है, वह तप श्रविरत देने में असमर्थ है, क्योंकि असंयम के कारण उस अविरत सम्यग्दृष्टि के । इसलिये श्री कुंदकुंद आचार्य ने अष्ट पाहुड़ में 'संजमहीणो य तवो जइ इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि यदि संयम रहित मनुष्य तप करता है वह सब
यहाँ पर 'तप' से पंचाग्नि आदि कुतपों का प्रयोजन नहीं हो सकता है, क्योंकि सम्यग्डष्टि कुतप नहीं कर सकता है और न कुतप का फल कर्मों को निर्मूल कर देना है । अतः यहां पर 'तप' से प्रयोजन अनशन आदि तपस्या का है; क्योंकि ये तप ही कर्मों को निर्मूल कर देने में समर्थ हैं। कहा भी है- " तपसा निर्जरा च ॥३॥ अनशनाव मोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्य तपः ॥ १९ ॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्य - स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ||२०|| ” मोक्षशास्त्र ।
इन सूत्रों का विशेष कथन सर्वार्थसिद्धि आदि शास्त्रों से जान लेना चाहिए।
व्रत धारण करने से ही इस मनुष्य पर्याय की सफलता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो चारों गतियों में हो सकती है, किन्तु संयम को कर्मभूमियों का पुरुष ही धारण कर सकता है, अन्य गति वाला संयम धारण नहीं कर सकता है ।
चारित्र चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सुखी नहीं, बल्कि दुःखी ही है।
शंका- चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि क्या सुख ही वेदता है या दुःख भी वेदता है ? उसका वेद्य-वेदक भाव क्या है ? उसकी भोक्तृत्व क्रिया क्या है ? सम्यग्ज्ञान के प्रबल प्रताप से सुख में लगने की मुख्यता रहती है या दु:ख ( राग द्वेष ) का वेदन करता है ? स्वात्मानुभूति के द्वारा क्या एकांत रूप से सुख का ही वेदन करता है ? क्या स्वात्मानुभूति शुद्धोपयोग के कारण उसके कर्म बन्ध नहीं होता है और सर्व कर्मों की निर्जरा हो जाती है ?
समाधान- - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है
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- जै. ग. 2-7-70/ VII / ज्ञा. घ., दिल्ली
जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है । अर्थात् अविरत सम्यग्दष्टि पाँचों तथा हिंसा आदि पाँच पापों से विरत नहीं है । श्री १०८ सकलकीर्ति आचार्य ने इन्द्रियों के लिखा है
इन्द्रियों के विषयों से विषय में इस प्रकार
णो इन्दियेसु विरदो, जो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिणुत्त सम्माइट्ठी अविरदो दो ।। २९ ।। गो० क०
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