Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
अपर्याप्त सासादन०
देवगतिचतुष्क का बन्ध नहीं करता
शंका- महाबंध पेज ४४ मिथ्यात्व तथा सासादन में तीर्थंकर तथा सुर चतुष्क का बन्ध नहीं होता है । प्रश्न यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में देवगति देवगत्यानुपूर्वी देवायु बन्ध होता है फिर महाबन्ध में बन्ध का निषेध क्यों किया गया ?
समाधान-महाबन्ध पृ० ४४ पर मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थानों में जो सुर - चतुष्क के बन्ध का निषेध किया गया है वह औदारिकमिश्रकाययोग की अपेक्षा से किया है । औदारिकमिश्र काययोग मनुष्य या तियंच के अपर्याप्त अवस्था में होता है । सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच के ही अपर्याप्त अवस्था में सुरचतुष्क ( देवगति, देवगत्यानुपूर्वी वैयिक शरीर, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग ) का बंध होता है । अतः श्रदारिक मिश्रकाययोगी के मिथ्यात्व व सासादन गुणस्थानों में सुरचतुष्क के बन्ध का निषेध किया गया है। धवल पु० ८ पृ० २१४-२१५ सूत्र १५२-१५३ में भी कहा है कि औदारिकमिश्रकाययोग में सुरचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृति के असंयत सम्यग्दृष्टि ही बंधक हैं, शेष अबन्धक हैं ।
- जै. ग. 27-8-64 / IX / ध. ला. सेठी, खुरई
सासादन गुणस्थान के प्रसंज्ञियों में अस्तित्व सम्बन्धी दो मत
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शंका- पंचसंग्रह पृ० ३३ श्लोक नं० ९६ पंचेन्द्रिय असैनी पर्याप्तक के मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान बतलाये हैं । असंज्ञी के पर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान कैसे संभव है ?
समाधान श्री अमितगति आचार्य कृत पंचसंग्रह में श्लोक ९६ इस प्रकार है
चतुर्दशसु पंचाक्षः पर्याप्तस्तत्र वर्तते । एतच्छास्त्रमतेनाद्य गुणस्थान द्वयेऽपरे ॥ ९६ ॥
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इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि चौदह जीवसमासों में से पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के आदि के दो गुणस्थान होते हैं आगे के गुणस्थान नहीं होते । ऐसा इस शास्त्र का मत है । श्लोक ९७ इस प्रकार है
पूर्ण: पंचेन्द्रियः संज्ञी चतुर्दशसु वर्तते । सिद्धान्तमततो मिथ्यादृष्टो सर्वे गुणे परे ॥९७॥
सिद्धान्त मत के अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के चौदह गुणस्थान होते हैं बाकी सर्व जीव समास के मिथ्यात्व गुरणस्थान होता है ।
श्लोक ९६ में उन प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का कथन है, जिनके पर्याप्तक नाम कर्मोदय है और श्लोक ९६ में पर्याप्तक नामकर्म वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का कथन | पर्याप्तक नाम कर्म वालों की दो अवस्था होती हैंअपूर्ण और पूर्ण । गोम्मटसार कर्मकांड तथा तस्वार्थवृत्ति के अनुसार और श्री अमितगति आचार्यानुसार श्रसंज्ञी जीवों के भी अपूर्ण अवस्था में सासादन गुणस्थान संभव है, किन्तु श्री पुष्पदन्त तथा श्री भूतबली आचार्यों के मतानुसार असंज्ञियों में सासादन गुणस्थान नहीं होता है । प्रमाण इस प्रकार है
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