Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७१
इस आत्मार्थी का सर्वोपरि कार्य रहा । सेवक का नाम अमर रहे और आप भी
बहुत ही सादा जीवन, प्रत्येक क्षण स्वाध्याय, मुनिसंघों में जाना, वहाँ भी स्वाध्याय करना - कराना, यही रत्ती भर भी चाहना कभी नहीं की। जिनवाणी व जैनधर्म के ऐसे परम शीघ्र मुक्तिवधु का वरण करें; यही मङ्गल कामना है ।
विद्वानों की दृष्टि में :
स्व० पण्डित रतनचन्द मुख्तार
१.
स्व० पं० खूबचन्दजी शास्त्री श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला से प्रकाशित गो० जीवकाण्ड तृतीयावृत्ति के प्रारम्भ में लिखते हैं :--
" एक गाथा छूट जाने के सिवाय और कोई भी इसमें अशुद्धि रह गई हो, जिसे कि सुधारने की आवश्यकता हो तो उसके मालूम कर लेने के सद् अभिप्राय से हमारी सम्मति के अनुसार भाई कुन्दनलालजी ने समाचार पत्रों में विद्वानों के नाम एक विज्ञप्ति भी इसी श्राशय की प्रकाशित की थी और उन्होंने तथा हमने प्रत्यक्ष भी कुछ विद्वानों से इस विषय में सम्मति मांगी थी, परन्तु एक सहारनपुर के भाई ब्र० श्री रतनचन्दजी सा० मुख्तार के सिवाय किसी से किसी भी तरह की सूचना या सम्मति हमको नहीं प्राप्त हुई । श्री रतनचन्दजी सा० ने जो संशोधन भेजे, हमने उनको बराबर ध्यान में लिया है और संशोधन करते समय दृष्टि में भी रखा है। हम मुख्तार सा० की इस सहृदयता, सहानुभूति तथा श्रुतानुराग के लिये अत्यन्त आभारी हैं और केवल अनेक धन्यवाद देकर ही उनके निःस्वार्थ श्रम का मूल्य करना उचित नहीं समझते।"
[७-९-१९५६]
२. श्री बाबू छोटेलाल कलकत्ता निवासी कषायपाहुड़ सूत्र के प्रकाशकीय वक्तव्य में लिखते हैं :
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"विद्वद् परिषद् के शंका-समाधान विभाग के मंत्री श्री रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर, धर्मशास्त्र के मर्मज्ञ और सिद्धान्त -ग्रन्थों के विशिष्ट अभ्यासी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के बहुभाग का आपने उसके अनुवादकाल में ही स्वाध्याय किया है और यथावश्यक संशोधन भी अपने हाथ से प्रेस कॉपी पर किये हैं । ग्रन्थ का प्रत्येक फार्म मुद्रित होने के साथ ही आपके पास पहुँचता रहा है और प्राय: पूरा शुद्धिपत्र भी आपने बनाकर भेजा है, इसके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं ।
- मंत्री श्री वीरशासनसंघ, कलकत्ता, वि० सं० २०१२ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा
३.
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस लिखते हैं :
" बहुत दिनों बाद समाज का भाग्य जागा है कि आप जैसे तत्त्वदर्शी और शास्त्रज्ञानी उत्पन्न हुए हैं। आपसे विशेष निवेदन है कि ज्ञानपीठ के प्रकाशन कार्यक्रम को आप अपने सहयोग का सम्बल देते रहें ।
[२३-८-१९६०]
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