Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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दिग्गज एवं तार्किक शिरोमणि हैं। इससे ज्यादा लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । आप पर्युषण पर्व पर यहाँ न आ सकेंगे, इसका हमें खेद है, परन्तु अगले साल के वास्ते यहाँ का ख्याल जरूर रखेंगे । ऐसी पूर्ण आशा है ।
[२३-७-१९६९]
पूज्य श्री नेमिचन्द मुख्तार
* विनोदकुमार जैन, सहारनपुर
यद्यपि ग्रन्थ का प्रस्तुत खण्ड पूर्ण होने को है, किन्तु यह मेरी दृष्टि में उसी समय पूर्ण होगा जब श्रद्धय 'पं० श्री रतनचन्दजी मुख्तार' के साथ ही साथ उनके पधानुवायी अनुज पं० श्री नेमिचन्दजी जैन (वकील) साहब का भी स्मरण किया जाय । क्योंकि मुझे प्रथम देशना आपके द्वारा ही प्राप्त हुई थी अतः शिष्यत्व के नाते भी मेरे लिये आप श्रद्धेय पूज्य एवं अभिनन्दनीय हैं । निःसन्देह ये दोनों भ्राता मेरे श्रुतरूपी नयन युगल हैं । आपके द्वारा तीव्र प्रतिषेध किये जाने पर भी मैं यहाँ आपका अल्प परिचय दे रहा हूँ।
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आपका जन्म उत्तर भारत के सहारनपुर नगर में दिसम्बर १९०५ में हुआ था । सन् १९२७ में कानपुर से आपने बी०कॉम० ( B. Com. ) परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर सन् १९२६ में ग्रागरा से वकालत ( LL.B. ) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् सहारनपुर क्षेत्र के न्यायालय में ही वकालत का कार्य करने लगे। चातुर्य एवं विशेष तर्कणाशक्ति के कारण आपने अपने कार्य में विशेष दक्षता प्राप्त कर ली । व्यावहारिक कुशलता के कारण आप जैन धर्माचं चिकित्सालय के अध्यक्ष व जे० वी० जैन डिग्री कालेज तथा इन्टर कालेज के सचिव पद पर निर्वाचित किये गये ।
पिताश्री के जो धार्मिक संस्कार आपके हृदय पटल पर संस्कृत हुए थे, वे अब अंकुरित होने लगे। शनैः शनैः धार्मिक जीवन की ओर प्रवृत्ति अग्रसर हुई, वकालत और व्यावहारिक व सामाजिक क्षेत्र में रुचि घटती गई तथा इन क्षेत्रों में पूर्ण उदासीनता के कारण सन् १९५५ में वकालत का कार्य अग्रजवत् आपने समग्र रूप में छोड़ दिया । चिकित्सालय एवं कालेज के अध्यक्ष व सचिव आदि पदों से भी त्यागपत्र दे दिया । आत्मकल्याण की दृष्टि से जिनागम का गहन अध्ययन करने लगे। धवल, जयधवलादि सैद्धान्तिक ग्रन्थों के साथ ही साथ आपने अध्यात्म, न्याय आदि के ग्रन्थों का भी गहन मन्थन किया । प्रतिफल स्वरूप आज सिद्धान्त, अध्यात्म एवं न्याय आदि विषयों पर आपका अधिकार है।
आपकी विद्वत्ता से आकर्षित होकर रुचि रखने वाले श्रावकों ने आपके साथ सामूहिक शास्त्र स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया । सन् १९५५ से ही इस सामूहिक शास्त्र सभा को कक्षा के रूप में श्राप चला रहे हैं जिसमें लगभग १५-२० श्रावक-श्राविकाएँ पढ़ते हैं। यह सभा श्रावकों के हितार्थ अतिशय लाभप्रद सिद्ध हुई है। धावकों की शंकाओं का आप बहुत सरल व वैज्ञानिक ढंग से समाधान करते हैं। श्रावकवृन्द भी इस स्वाध्याय कक्षा के संयोग से अपने को परम सौभाग्यशाली समझते हैं। रात्रि को मन्दिरजी में शास्त्र सभा भी आपके द्वारा ही चलाई जाती है।
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