Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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के परिश्रम से आपने अनेक ऐसे मुकदमों में भी सफलता प्राप्त की जिनमें अन्य मुख्तार व वकील विफल हो जाते । तब यह कौन कह सकता था कि पिता श्री द्वारा पल्लवित धार्मिक संस्कारों की यह लघु कलिका एक दिन एक विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगी।
'मुख्तार' के रूप में सफलतापूर्वक कार्य करने के बावजूद आपको उससे उदासीनता हो चली तथा जिनागम के स्वाध्याय के प्रति तीव्र अभिरुचि जाग्रत हुई। मस्तिष्क पटल पर विचारों के तार झंकृत हो उठे कि क्यों न मुख्तारी से स्थायी अवकाश ग्रहण किया जाय लेकिन आजीविका का भी तो प्रश्न प्रबल था। मन और बुद्धि में द्वन्द्व होने लगा । अन्ततोगत्वा बुद्धि ने मन पर विजय प्राप्त की और आपने ३१ मई सन् १९४७ के दिन मुख्तार के कार्य को समग्र रूप में तिलाञ्जलि दे दी।
स्वाध्याय की ओर
अब अवकाश मिलने पर श्री भागीरथजी वर्णी की प्रेरणा से आप स्वाध्याय की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हए । यद्यपि आपने अब तक उर्दू व अंग्रेजी भाषा का ही ज्ञान प्राप्त किया था फिर भी विशेषोत्साह के कारण प्रथमानुयोग के ग्रन्थों के स्वाध्याय से हिन्दी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया। शनैः शनैः संस्कृत और प्राकृत में आपने प्रवेश पा लिया।
व्रती जीवन
इस बीच पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी से आपका सम्पर्क हुआ। जब पूज्य वर्णीजी ने आपको व्रती बनने के लिए अभिप्रेरित किया तब आपने श्रावकाचार सम्बन्धी अठारह ग्रन्थों का अध्ययन किया तदुपरान्त सन् १९४६ में पूज्य वीजी से आपने द्वितीय प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये। सन् १९५० में आप मातृस्नेह से भी वञ्चित हो गये।
संघ सान्निध्य
आपकी विद्वत्ता ख्यात हो चली थी। इसीकारण पर्युषण एवं अष्टाह्निका पर्व में प्रवचन हेतु आपको विभिन्न स्थानों के जैन समाज से निमन्त्रण प्राप्त होने लगे। सन् १९४७ से ही पर्युषण पर्व में प्रवचनार्थ आप बाहर जाने लगे थे और तब से निरन्तर प्रति वर्ष भिन्न-भिन्न स्थानों के समाजों को अपने प्रवचनों से लाभान्वित करते रहे । सन् १९५१ में आपका सम्पर्क मुनिसंघों से हुआ। प० पू० चारित्र चक्रवर्ती स्व० १०८ श्री शान्तिसागरजी महाराज, स्व. श्री वीरसागरजी महाराज, स्व. श्री शिवसागरजी महाराज, स्व. श्री ज्ञानसागरजी महाराज एवं वर्तमान में परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज आदि के श्रमरणसंघों के सम्पर्क में आप रहे थे। प्राचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज एवं मुनि श्री अजितसागरजी महाराज के साथ आपका बहुत सम्पर्क रहा। लगभग प्रत्येक वर्षायोग में आप इनके दर्शनार्थ अवश्य ही जाते थे ।
प्रागमोक्त शङ्का-समाधानकर्ता
पण्डित दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सन् १९५४ में आपको शङ्का समाधान विभाग सौंपा गया। फलतः जहाँ आपका परिचय अनेक स्वाध्याय प्रेमियों से हुआ, वहीं शंकाकर्ताओं को अपनी जटिल शंकाओं का अतीव सरल व सन्तोषप्रद आगमानुकूल समाधान सप्रमाण मिलने लगा। स्वाध्यायकर्ताओं की शङ्काएँ आपके पास निरन्तर पाती रहती थीं। आपके समाधानों से सभी लाभान्वित होते थे।
टस जाँकाओं का अतीव
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