Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
६० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अध्यक्ष एवं अधिष्ठाता
व्यावहारिक एवं धार्मिक दोनों ही क्षेत्रों में पर्याप्त योग्यता, अनुभव एवं तर्कणाबुद्धि सम्पन्न होने से अापने सन् १९६५ से १९६८ तक चार वर्ष अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया किन्तु इस पद की गतिविधियों को स्वहित में बाधक जान कर आपने १९६८ में अध्यक्ष पद से श्याग पत्र दे दिया। आप कई वर्षों तक उदासीन आश्रम, ईसरी व श्रावकाश्रम श्रीमहावीरजी के भी अधिष्ठाता रहे। ग्रन्थसंग्रह और स्वाध्याय
आपने अपने शास्त्र संग्रहालय में लगभग ४०० आर्षग्रन्थों का सङ्कलन किया। उनमें से चारों अनुयोगों पर आश्रित लगभग २०० ग्रन्थों का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीर स्वाध्याय भी किया। उनमें भी जैन सिद्धान्तों के मूल ग्रन्थ धवल, जयधवल तथा महाबन्ध की ३६ पुस्तकों के लगभग १५००० पृष्ठों का गम्भीर तलस्पर्शी अध्ययन किया था जिसका ही प्रतिफल हया कि आप करणानुयोग के पारगामी विद्वान् हो गये। यदि आपको चलता फिरता करणानुयोग भी कहा जाता तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होती। टीकाएँ, ट्रैक्ट्स (Tracts) एवं समीक्षा
आपने द्रव्यसंग्रह, आलाप पद्धति तथा लब्धिसार, क्षपणासार की हिन्दी टीकाएँ की हैं। आयू उपान्त्य दिवस तक आप गोम्मटसार-जीवकाण्ड की टीका लिख रहे थे । आपकी टीकानों की अद्वितीय विशेषता यह है कि वे धवल-महाधवलादि ग्रन्थों पर आधारित होने से उन पाठकों के लिए भी अतिशय लाभदायी हैं जो धवलादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने में असमर्थ हैं।
आपने कतिपय विवादग्रस्त विषयों को दृष्टि में रखते हए कुछ ट्रैक्ट्स भी लिखे जैसे क्रमबद्ध पर्याय, अकालमरण, पुण्य का विवेचन आदि । ये ट्रैक्ट्स अनेक शङ्काओं का समीचीन समाधान प्रस्तुत करते हैं। आपने गुणस्थान-मार्गरणास्थान विषयाश्रित एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ट्रैक्ट 'गुरणस्थान-मार्गणा चर्चा' का सम्पादन किया। पूर्व प्रकाशित 'चौबीस ठाणा चर्चा' में अनेक सैद्धान्तिक भूलें थीं। उनको दूर करने एवं उसमें उल्लिखित विषय सामग्री को रोचक बनाने के उद्देश्य से ही आपने नये ट्रैक्ट का सम्पादन किया था। इसका प्रकाशन शान्तिवीरनगर श्रीमहावीरजी से हुआ है। पूज्य १०५ आर्यिका श्री आदिमती माताजी ने कुछ वर्ष पूर्व गोम्मटसार कर्मकाण्ड की नवीन हिन्दी टीका लिखी थी। उक्त ग्रन्थ का आपने धवल महाधवलादि ग्रन्थों के साथ मिलान किया तथा अनेक शहास्पद विषयों को सुलझाते हए अनेक स्थलों पर धवलादि महान् ग्रन्थों के प्रमाण दिये । यह नवीन प्रकाशित ग्रन्थ पाठकों के लिए अतिशय लाभप्रद सिद्ध होगा।
मेरा सम्पर्क
सन् १९७५ में सहारनपुर में परम पूज्य आचार्यप्रवर १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज का ससंघ चातुर्मास हुआ। तब मैंने पूज्य आचार्य श्री से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अङ्गीकार किया। जब संघ का विहार होने लगा तो संघस्थ आर्यिका विदुषी रत्न श्री १०५ जिनमतीजी एवं शुभमतीजी ने मुझे यह प्रेरणा दी कि तुम पण्डित रतनचन्दजी के पास अध्ययन के लिये जाया करो। तभी से मेरा आपसे सम्पर्क हुआ। आपने ही मेरे जीवन में स्वाध्याय का अंकुरारोपण किया। मेरे द्वारा उपाजित शास्त्रीय ज्ञान के निमित्त का सम्पूर्ण श्रेय आपको ही है। करणानयोग का ज्ञान प्रदान करके आपने मुझ प्रज्ञ पर जो उपकार किया है उससे मैं वर्तमान पर्याय में उऋण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org