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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २ : श्लोक ८-१५
(४) उष्ण परीषह गरम धूलि आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करे-आकुल-व्याकुल न बने। गर्मी से अभितप्त होने पर भी मेधावी१२ मुनि स्नान की इच्छा न करे। शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा न ले।
(४) उसिणपरीसहे ८. उसिणपरियावेणं
परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसु नो परियावेणं
सायं नो परिदेवए।। ६. उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए। गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ।।
(५) दंसमसयपरीसहे १०.पुट्ठो य दंसमसएहिं
समरेव महामुणी। नागो संगामसीसे वा
सूरो अभिहणे परं।। ११.न संतसे न वारेज्जा
मणं पि न पओसए। उवेहे न हणे पाणे मुंजते मंससोणियं ।।
(६) अचेलपरीसहे १२.परिजुण्णेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं
इइ भिक्खू न चिंतए।। १३.एगयाचेलए होइ
सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।।
(४) उष्णपरीषहः उष्णपरितापेन परिदाहेन तर्जितः। ग्रीष्मे वा परितापेन सातं नो परिदेवेत।। उष्णाभितप्तो मेधावी स्नानं नो अपि पार्थयेत्। गात्रं नो परिषिञ्चेत् न वीजयेच्चात्मकम्।। (५) 'दंशमशकपरीषहः स्पृष्टश्च दंशमशकैः सम एव महामुनिः। नागः संग्रामशीर्षे इव शूरोऽभिहन्यात् परम्।। न संत्रसेत् न वारयेत् मनो पि न प्रदोषयेत्। उपेक्षेत न हन्यात् प्राणान् भुजानान्मांसशोणितम् ।। (६) अचेलपरीषहः
परिजीर्णैर्वस्त्रैः भविष्यामीत्यचेलकः। अथवा सचेलको भविष्यामि इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। एकदाऽचेलको भवति सचेलश्चापि एकदा। एतद् धर्महितं ज्ञात्वा ज्ञानी नो परिदेवेत।।
(५) दंशमशक परीषह डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव में रहे", क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे युद्ध के अग्रभाग में रहा हुआ शूर" हाथी वाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है। भिक्षु उन दंश-मशकों से संत्रस्त न हो', उन्हें हटाए नहीं। मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस
और रक्त खाने-पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे", किन्तु उनका हनन न करे।
(६) अचेल परीषह "वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंगा अथवा वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेल हो जाऊंगा"मुनि ऐसा न सोचे। (दीन और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए।) जिनकल्प-दशा में अथवा वस्त्र न मिलने पर मुनि अचेलक भी होता है और स्थविरकल्पदशा में वह सचेलक भी होता है। अवस्था-भेद के अनुसार इन दोनों (सचेलत्व और अचेलत्व) को यति धर्म के लिए हितकर जानकर ज्ञानी मुनि वस्त्र न मिलने पर दीन न बने ।२०
(७) अरति परीषह एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाये तो उस परीषह को वह सहन करे।
(७) अरइपरीसहे १४.गामाणुगामं रीयंतं
अणगारं अकिंचणं। अरई अणुप्पविसे
तं तितिक्खे परीसहं ।। १५.अरई पिट्ठओ किच्चा
विरए आयरक्खिए। धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे।।
(७) 'अरतिपरीषहः ग्रामानुग्रामं रीयमाणं अनगारमकिञ्चनम्। अरतिनुप्रविशेत् तं तितिक्षेत परीषहम्।।
अरतिं पृष्ठतः कृत्वा विरतिः आत्मरक्षितः। धर्मारामो निरारम्भः उपशान्तो मुनिश्चेरत्।।
हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने वाला, उपशान्त मुनि अरति को दूर कर विहरण करे ।२२
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