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अकाममरणीय
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अध्ययन ५ : श्लोक २७-३२
दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समिद्धाः कामरूपिणः। अधुनोपपन्नसंकाशा, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः।।
दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले र और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते हैं।
जो उपशान्त होते हैं,५ वे संयम और तप का अभ्यास कर उन देव-आवासों में जाते हैं, भले फिर वे भिक्षु हों या गृहस्थ।
२७. दीहाउया इहिमंता,
समिद्धा कामरूविणो। अहुणोववन्नसंकासा,
भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ।। २८. ताणि ठाणाणि गच्छंति,
सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा,
जे संति परिनिव्वुडा।। २६. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं,
संजयाण वुसीमओ। न संतसंति मरणंते,
सीलवंता बहुस्सुया ।। ३०. तुलिया विसेसमादाय
दयाधम्मस्स खंतिए। विप्पसीएज्ज मेहावी, तहाभूएण अप्पणा।।
तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। भिक्षादा वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिर्वृताः।। तेषां श्रुत्वा सत्पूज्यानां, संयतानां वृषीमताम्। न संत्रस्यन्ति मरणान्ते, शीलवन्तो बहुश्रुताः।। तोलयित्वा विशेषमादाय, दयाधर्मस्य क्षान्त्या। विप्रसीदेन्मेधावी, तथाभूतेनात्मना।।
उन सत्-पूजनीय, संयमी और जितेन्द्रिय भिक्षुओं का पूर्वोक्त विवरण सुनकर शीलवान् और बहुश्रुत भिक्षु मरणकाल में भी संत्रस्त नहीं होते।६।।
मेधावी मुनि अपने आपको तोल कर, अकाम और सकाम-मरण के भेद को जानकर अहिंसा धर्मोचित सहिष्णुता और तथाभूत (उपशान्त मोह) आत्मा के द्वारा प्रसन्न रहे—मरण-काल में उद्विग्न न बने।
३१.तओ काले अभिप्पए,
सड्डी तालिसमंतिए। विणएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए।।
ततः काले अभिप्रेते, श्रद्धी तादृशान्तिके। विनयेल्लोमहर्ष, भेदं देहस्य काक्षेत्।।
जब मरण अभिप्रेत हो,५० उस समय जिस श्रद्धा से मुनि-धर्म या संलेखना को स्वीकार किया, वैसी ही श्रद्धा रखने वाला भिक्षु गुरु के समीप कष्टजनित रोमांच को" दूर करे, शरीर के भेद की प्रतीक्षा करेउनकी सार संभाल न करे।१२
३२. अह कालंमि संपत्ते,
आघायाय समुस्सयं । सकाममरणं मरई, तिण्हमन्नयरं मुणी।।
अथ काले संप्राप्ते, आघातयन् समुच्छ्रयम्। सकाममरणं म्रियते, त्रयाणामन्यतरं मुनिः।।
वह मरणकाल प्राप्त होने पर संलेखना के द्वारा शरीर का त्याग करता है," भक्त-प्रतिज्ञा, इङ्गिनी या प्रायोपगमन-इन तीनों में से किसी एक को५ स्वीकार कर सकाम-मरण से मरता है।
–त्ति बेमि।
-इति ब्रवीमि।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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