________________
हरिकेशीय
२२१
अध्ययन १२ : श्लोक ४५-४६ टि०४८-५१
'सुव' खदिर (कत्थे) की लकड़ी से बनाई जाती थी। इसके आत्मा और वैकल्पिक अर्थ इष्ट किया है। पीत आदि लेश्याएं दो प्रकार होते थे'
इष्ट होती हैं, वे शुद्ध लेश्याएं हैं। अशुद्ध लेश्याएं (कृष्ण आदि) १. अधरा सुव-इसको उपभृत् कहा जाता था। यह इष्ट नहीं होती। शत्रुपक्षीय और नीचे रखा जाता था।
वृत्तिकार ने 'पसन्न' का अर्थ-विशुद्ध और 'अत्त' का २. उत्तरा स्रुव-इसे जुहू कहा जाता था। यह अर्थ आत्मा किया है। उन्होंने 'अत्त' का संस्कृत रूप 'आप्त'
यजमानपक्षीय और उपभृत् से ऊपर रखा जाता मानकर उसके दो अर्थ और किए हैं-हितकर और प्राप्त।' था।
'अत्तपसन्नलेसे' के संस्कृत रूप 'आत्मप्रसन्नलेश्यः' या विशेष विवरण के लिए देखें-अभिधान चिन्तामणि कोश 'आप्तप्रसन्नलेश्यः' होता है। लेश्या प्रसन्न (धर्म) और अप्रसन्न ३।४६२ का विमर्श।
(अधर्म)--दो प्रकार की होती है। आत्मा की प्रसन्न--सर्वथा ४८. शांतितीर्थ (संतितित्थे)
अकलुषित लेश्या जहां होती है, उसे प्रसन्न लेश्या कहा गया है। चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने 'संति' का अर्थ-शांति या आप्त-पुरुष के द्वारा प्रसन्न लेश्या का निरूपण हो अथवा जहां 'सान्त' (अस् धातु का बहुवचन) किया है। इसका अर्थ शांति प्रसन्न लेश्या प्राप्त हो, उस धर्म या शांतितीर्थ को 'आप्तप्रसन्नलेश्य मानने पर 'तीर्थ' में एक वचन है। 'सन्ति' को क्रिया मानने पर कहा गया है। उसमें बहुवचन है। बृहद्वृत्ति के अनुसार तीर्थ का अर्थ ५०. कर्म-रज (दोस) 'पुण्यक्षेत्र' या 'संसार समुद्र को तैरने का उपायभूत घाट' है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ पाप' और वृत्तिकार ने 'कर्म' चूर्णि के अनुसार तीर्थ के दो भेद हैं-द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ। किया है। कर्म विशुद्ध आत्मा को भी दृषित कर देता है, इसलिए प्रभास आदि द्रव्यतीर्थ कहलाते हैं और ब्रह्मचर्य भावतीर्थ या वह दोष है। शांतितीर्थ कहलाते हैं।
५१. (श्लोक ४६) अगले श्लोक (४६) में सूत्रकार ने स्वयं ब्रह्मचर्य को महात्मा बुद्ध ने भी जलस्नान को धार्मिक महत्त्व नहीं शांतितीर्थ माना है। शान्त्याचार्य ने इस प्रसंग में इसका अर्थ इस दिया। उन्होंने भी धार्मिक महत्त्व आत्मशुद्धि को ही दिया है। प्रकार किया है-मत् प्रत्यय का लोप तथा ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी इस विषय पर मज्झिमनिकाय का निम्नोक्त प्रसंग सुन्दर का अभेद मान लेने पर यह होता है कि ब्रह्मचारी तीर्थ है। इस प्रकाश डालता है।"- अर्थ में 'बंभे' में वचन-व्यत्यय मानना होगा।
उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण भगवान के अविदूर ४९. आत्मा का प्रसन्न लेश्या वाला (अत्तपसन्नलेसे) में बैठा था। तब सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् से यह
चूर्णि में पीत आदि लेश्याओं को प्रसन्न माना है। लेश्या कहा-- दो प्रकार की होती है-शरीरलेश्या (आभामंडल) और आत्मलेश्या क्या आप गौतम स्नान के लिए बाहूका नदी चलेंगे? (भावधारा)। 'अत्तपसन्नलेसे'-इस पद के द्वारा आत्मलेश्या का ब्राह्मण ! बाहुका नदी से क्या (लेना) है ? बाहुका नदी क्या ग्रहण किया गया है। शरीर की लेश्याएं अशुद्ध होने पर भी करेगी? आत्मा की लेश्याएं शुद्ध हो सकती हैं। शरीर की लेश्याएं शुद्ध हे गौतम ! बाहुका नदी लोकमान्य (=लोक-सम्मत) है, होने पर आत्मा की लेश्या शुद्ध और अशुद्ध-दोनों प्रकार की बाहुका नदी बहुत जनों द्वारा पवित्र (=पुण्य) मानी जाती है। हो सकती है।
बहुत से लोग बाहुका नदी में (अपने) किए पापों को बहाते हैं। 'अत्त' शब्द पांच अर्थों में प्रयुक्त होता है-आत्मा, इष्ट, तब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कान्त, प्रिय और मनोज्ञ। चूर्णि में 'अत्त' का मुख्य अर्थ कहा---- १. का० श्री० सू १३४० : खादिर खुवः ।।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ : ब्रह्मेति-व्रह्मचर्य शान्तितीर्थ..... अथवा ब्रह्मेति २. शतपथब्राह्मण १।४।४।१८,१६।
ब्रह्मचर्यवन्तो मतुब्लोपाद् अभेदोपचाराद् वा साधव उच्यन्ते, सुब्यत्य३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : 'संतितित्थे' ति शमनं शांतिः, याच्चैकवचनं, संति-विद्यन्ते तीर्थानि ममेति गम्यते।
शांतिरेव तीर्थः, अथवा सन्तीति विद्यन्ते, कतराणि संति तित्थाणि? ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२१२: शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्या (ख) बृहद्रवृत्ति, पत्र ३७३ : संतितित्थे ति कि च ते-तव शुद्धा भवंति, शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया, अथवा अत्त इति इष्टाः,
शान्त्यैपापोपशमननिमित्तं तीर्थ-पुण्यक्षेत्र शान्तितीर्थम्, अथवा कानि ताश्च पीताद्याः, ताश्च शुद्धाः, अनिष्टास्तु अणत्ताओ, उक्त हि-अत्ता च किं रूपाणी ते-तव सन्ति विद्यन्ते तीर्थानि संसारोदधितरणो- इट्ठा कंता पिया मणुण्णा,.....| पायभूतानि।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : तित्थं दुविहं--दव्वतित्थं भावतित्थं च, ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : दोसमिति पापं। प्रभासादीनि द्रव्यतीर्थानि, जीवानामुपरोधकारीनीतिकृत्वा न शान्तितीर्थानि ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ : दोषं-कर्म। भवंति, यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद् भावतीर्थं भवति, ब्रह्म एव १०. मज्झिमनिकाय, ११७, पृ० २६ । शान्तितीर्थम्।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org