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उत्तरज्झयणाणि
का अनुताप न होना
।
ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु हैं, इसलिए इन्हें 'अप्रशस्त - ध्यान' कहा जाता है। इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान की कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से आर्त्त और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है ।
मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं – (१) धर्म्य और (२) शुक्ल । इनसे आश्रव का निरोध होता है, इसलिए इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है।
(३) धर्म्यध्यान
वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्म्य-ध्यान' कहा जाता है। इसके चार प्रकार हैं
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में संलग्न चित्त ।
धर्म्यध्यान के चार लक्षण हैं
(क) आज्ञा-रुचि - प्रवचन में श्रद्धा होना । (ख) निसर्ग - रुचि — सहज ही सत्य में श्रद्धा होना । (ग) सूत्र - रुचि - सूत्र - पठन के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना । (घ) अवगाढ़ - रुचि विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना । धर्म्यध्यान के चार आलम्बन हैं
(क) आज्ञा-विचय- - प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । (ख) अपाय-विचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । (ग) विपाक-विचय-कर्म-फलों के निर्णय में संलग्न चित्त ।
(घ) संस्थान - विचय- विविध पदार्थों के आकृति निर्णय है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म क्रिय' कहा जाता है। इसका निवर्तन ( स ) नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है।
(क) वाचना-पढ़ाना ।
(ख) प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिए प्रश्न करना । (ग) परिवर्तना पुनरावर्तन करना।
(घ) अनुप्रेक्षा अर्थ का चिन्तन करना ।
धर्म्यध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं
(क) एकत्व - अनुप्रेक्षा- अकेलेपन का चिन्तन करना । (ख) अनित्य-अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन
करना ।
(ग) अशरण - अनुप्रेक्षा- अशरण- दशा का चिन्तन करना । (घ) संसार- अनुप्रेक्षा -- संसार परिभ्रमण का चिन्तन
करना ।
(४) शुक्लध्यान
चेतना की सहज ( उपाधि-रहित) परिणति को 'शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं-
(क) पृथक्त्व-वितर्क सविचारी,
(ख) एकत्व - वितर्क-अविचारी,
(ग) सूक्ष्म क्रिम अनिवृत्ति,
(घ) समुच्छिन्न-क्रिय-अप्रतिपाति ।
१. तत्त्वार्थ सूत्र ६२६
अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६
ध्यान के विषय द्रव्य और उसके पर्याय हैं। ध्यान दो प्रकार का होता है- - सालम्बन और निरालम्बन । ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता हैभेद-दृष्टि से और अभेद - दृष्टि से ।
जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियोंनयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को 'पृथक्त्व -वितर्क-सविचारी' कहा जाता है।
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जब एक द्रव्य या किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द अर्थ एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे से संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को 'एकत्व - वितर्क-अविचारी' कहा जाता है।
जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता
जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपात है। शुक्लध्यान के चार लक्षण
(क) अव्यथ - क्षोभ का अभाव ।
(ख) असम्मोह - सूक्ष्म-प -पदार्थ-विषयक मूढ़ता का अभाव । (ग) विवेक- शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान । (घ) व्युत्सर्ग—शरीर और उपधि में अनासक्त-भाव । शुक्लध्यान के चार आलंबन
(१) शान्ति क्षमा, (२) मुक्ति निलभता, (३) मायमृदुता और (४) आर्जव सरलता । शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं
(क) अनन्तवृत्तिता - अनुप्रेक्षा-संसार परम्परा का चिन्तन
करना ।
(ख) विपरिणाम-अनुप्रेक्षावस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना ।
(ग) अशुभ- अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन
करना ।
(घ) अपाय- अनुप्रेक्षा— दोषों का चिन्तन करना । १६. विनुस्सग्गो (श्लोक ३६)
व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। भगवती ( २५ । ६१३ ) और औपपातिक (सू० ४४) के अनुसार व्युत्सर्ग
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