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उत्तरज्झयणाणि
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आचार्य हरिदत्त सूरि थे, जिन्होंने वेदान्त दर्शन प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्रार्थ कर उनको पांच सौ शिष्यों सहित दीक्षित किया। इन नवदीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तेलंगादि प्रान्तों में विहार कर जैन - शासन की प्रभावना की। तीसरे पट्टधर आचार्य समुद्रविजय सूरि थे। उनके समय में 'विदेशी' नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जैन नगरी में महाराज जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार केशी को दीक्षित किया।' ये ही भगवानन् महावीर के तीर्थ काल में पार्श्व परम्परा के आचार्य थे। आगे चल कर इन्होंने नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन धर्म में स्थापित किया।
पूरे विवरण के लिए देखिए -उत्तरज्झयणाणि २३ का आमुख | वर्द्धमान ( २३1५ ) – ये चौबीसवें तीर्थङ्कर थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। इनका समय ई० पू० छठी
१. समरसिंह, पृ० ७५-७६ ।
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शताब्दी था ।
जयघोष, विजयघोष ( २५1१ ) वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई रहते थे। वे काश्यप गोत्रीय थे। वे यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह—इन छह कार्यों में रत थे और चार वेदों के ज्ञाता थे। वे दोनों युगलरूप में जन्मे । जयघोष पहले दीक्षित हुआ। फिर उसने विजयघोष को प्रव्रजित किया। दोनों श्रामण्य की आराधना कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। गार्ग्य ( २७ 19 ) – ये स्थविर आचार्य गर्ग गोत्र के थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य अविनीत, उद्दण्ड और उच्छृंखल हो गये हैं, तब आत्मभाव से प्रेरित हो, शिष्य समुदाय को छोड़ कर, वे अकेले हो गये और आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे । विशेष विवरण के लिए देखिए—उत्तरज्झयणाणि का २७वां
अध्ययन।
परिशिष्ट ४ व्यक्ति परिचय
२. नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध, १३६ ।
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