Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 738
________________ उत्तरज्झयणाणि ६९७ परिशिष्ट ५ : भौगोलिक परिचय एक 'लोरी' के अनेक नगरों के साथ 'सोरियपुर' का भी उल्लेख (१०) जैन-साहित्य में उल्लेख है कि जरासन्ध के भय से हुआ है।' भयभीत हो हरिवंश में उत्पन्न दशार्ह वर्ग मथुरा को द्वारका द्वारका की अवस्थिति के विषय में अनेक मान्यताएं प्रचलित छोड़ कर सौराष्ट्र में गए। वहां उन्होंने द्वारवती नगरी बसाई। (१) रायस डेविड्स ने द्वारका को कम्बोज की राजधानी महाभारत में इसी प्रसंग में कहा गया है कि जरासन्ध बताया है। के भय से यादवों ने पश्चिम दिशा की शरण ली और (२) बौद्ध-साहित्य में द्वारका को कम्बोज का एक नगर रेवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली (द्वारवती) माना गया है। डॉ० मललशेखर ने इस कथन को नगर में जा बसे और कुशस्थली दुर्ग की मरम्मत स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्भव है यह कम्बोज कराई।३ 'कंसभोज' हो, जो कि अन्धकवृष्णिदास पुत्रों का देश (११) जैन-आगम में साढ़े पचीस आर्य-देशों में द्वारका को था। सौराष्ट्र जनपद की राजधानी के रूप में उल्लिखित (३) डॉ० मोतीचन्द्र ने कम्बोज को पामीर प्रदेश मान कर किया गया है। यह नगर नौ योजन चौड़ा और बारह द्वारका को बदरवंशा से उत्तर में स्थित 'दरवाज' योजन लम्बा था।" इसके चारों ओर पत्थर का प्राकार नामक नगर माना है।' था। ऐसा भी उल्लेख है कि इसका प्राकार सोने का घट जातक (सं० ३५५) के अनुसार द्वारका के एक था। इसके ईसान कोण में रैवतक पर्वत था। इसके ओर समुद्र था और दूसरी ओर पर्वत था। डॉ० दुर्ग की लम्बाई तीन योजन थी। एक-एक योजन पर मललशेखर ने इसी को मान्य किया है। सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी थी। प्रत्येक भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार द्वारका सौराष्ट्र जनपद योजन के अन्त में सौ सौ द्वार थे। का एक नगर था। वर्तमान द्वारिका कस्वे से आगे २० इन सब तथ्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा-सा प्राचीन द्वारका रैवतक पर्वत के पास थी। रैवतक पर्वत सौराष्ट्र में टापू है, उसमें एक दूसरी द्वारका बसी हुई है, जिसे आज भी विद्यमान है। संभव है कि प्राचीन द्वारका इसी की तलहटी 'बेट द्वारिका' कहते हैं। अनुश्रुति है कि यहां भगवान् में बसी हो और पर्वत पर एक संगीन दुर्ग का निर्माण हुआ हो। कृष्ण सैर करने आया करते थे। द्वारिका और बेट भागवत और विष्णुपुराण में उल्लेख है कि जब कृष्ण द्वारका द्वारिका-दोनों नगरों में राधा, रुक्मिणी, सत्यभामा को छोड़कर चले गए तब वह समुद्र में डूब गई। केवल कृष्ण का आदि के मन्दिर पाए जाते हैं। राज-मन्दिर बचा रहा।" जैन-ग्रन्थों में भी उसके डूब जाने की बात कई विद्वानों ने इसकी अवस्थिति पंजाब में मानने की मिलती है। संभावना की है। जैन-ग्रन्थों में उल्लेख है कि एक बार कृष्ण ने भगवान् (७) डॉ० अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने द्वारका की अवस्थिति अरिष्टनेमि से द्वारका-दहन के विषय में पूछा। उस समय अरिष्टनेमि का निर्णय संशयास्पद माना है। उनका कहना है कि पल्हव देश में थे। अरिष्टनेमि ने कहा--"बारह वर्ष के बाद द्वीपायन प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गई। ऋषि के द्वारा इसका दहन होगा।" द्वीपायन परिव्राजक ने यह बात आधुनिक द्वारकापुरी प्राचीन द्वारका नहीं है। प्राचीन लोगों से सुनी। 'मैं द्वारका-दहन का निमित्त न बनूं-यह सोच वह द्वारका गिरनार पर्वत की तलहटी में जूनागढ़ के उत्तरापथ में चला गया। काल की गणना ठीक न कर सकने के आसपास बसी होनी चाहिए।" कारण वह बारहवें वर्ष द्वारका में आया। यादवकुमारों ने उसका पुराणों के अनुसार यह भी माना जाता है कि महाराज । तिरस्कार किया। निदान-अवस्था में मर कर वह देव बना तथा रैवत ने समुद्र के बीच में कुशस्थली नगरी बसायी। यह उसने द्वारका को भस्म कर डाला। आनर्त जनपद में थी। वही भगवान् कृष्ण के समय में द्वारवती-दहन से पूर्व एक बार फिर अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत द्वारका' या 'द्वारवती' नाम से प्रसिद्ध हुई।" पर आए थे।" जब द्वारवती का दहन हुआ तब वे पल्हव देश में १. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र ११६ । २. Buddhist Indiap. 28. Kamboja was the adjoining country in the extreme north-west, with Dvaraka as its capital, ३. पेतवत्थु, भाग २, पृ० । ४. दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० ११२६ । ५. ज्योग्राफिकल एण्ड इकोनॉमिक स्टडीज इन दी महाभारत, पृ०३२-४०। ६. दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० १५२५ । ७. बौद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ० ४६७। ८. बॉम्बे गेजेटीअर, भाग १, पार्ट १, पृ० ११ का टिप्पण १। ६. इन्डियन एन्टिक्वेरी, सन् १६२५, सप्लिमेन्ट, पृ० २५। १०. पुरातत्त्व, पुस्तक ४, पृ० १०८। ११. वायुपुराण, ६।२७। १२. दशवैकालिक, हारिभद्रीय टीका, पत्र ३६ । १३. महाभारत, सभापर्व, १४१४६-५१,६७। १४. बृहत्कल्प, भाग ३, पृ० ६१२,६१३ । १५. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० ६६,१०१। १६. बृहत्कल्प, भाग २, पृ० ३५१। १७. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० ६६। १८. महाभारत, सभापर्व, १४।५४-५५। १६. भागवत, ११।३।२३; विष्णुपुराण, ५१।२७३६ । २०. सुखबोधा, पत्र ३६-४०। २१. दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ३६-३७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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