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उत्तरज्झयणाणि
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परिशिष्ट ६: तुलनात्मक अध्ययन
बाह्मण
जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई थे। जयघोष मुनि बन गए। विजयघोष ने यज्ञ का आयोजन किया। मूनि जयघोष यज्ञवाट में भिक्षा लेने गए। यज्ञ-स्वामी ने भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह भोजन केवल ब्राह्मणों को ही दिया जायेगा। तब मुनि जयघोष ने समभाव रखते हुए उसे ब्राह्मण के लक्षण बताए। उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन में १६वें श्लोक से ३२वें श्लोक तक ब्राह्मणों के लक्षणों का निरूपण है और (२८,२६,३०,३१) के अतिरिक्त प्रत्येक श्लोक के अंत में 'तं वयं बूम माहणं' ऐसा पद है।
इसकी तुलना धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग (३६वां), सुत्तनिपात के वासेट्ठसुत्त (३५) के २४५वें अध्याय से होती है।
धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग में ४२ श्लोक हैं और उनमें नौ श्लोकों के अतिरिक्त (१,२,५,६,७,८,१०,११,१२) सभी श्लोकों का अन्तिम पद 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' है।
सुत्तनिपात का 'वासे? सुत्त' गद्य-पद्यात्मक है। उसमें ६३ श्लोक हैं। उनमें २६ श्लोकों (२७-४५) का अन्तिम चरण 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' है। इसमें कौन ब्राह्मण होता है और कौन नहीं, इन दोनों प्रश्नों का सुन्दर विवेचन है। अन्तिम निष्कर्ष यही है कि ब्राह्मण जन्मना नहीं होता, कर्मणा होता है।
महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २४५ में ३६ श्लोक हैं। उनमें सात श्लोकों (११,१२,१३,१४,२२,२३,२४) के अन्तिम चरण में 'तं देवा ब्राह्मणं विदुः' ऐसा पद है।
तीनों में ब्राह्मण के स्वरूप की मीमांसा है।
(४) जो सुसंवृत है, (५) जो सत्यवादी है, धर्मनिष्ट है,
जो पंशुकूल (फटे चीथड़ों से बना चीवर) को धारण
करता है, (७) जो दुबला, पतला और नसों से मढे शरीर वाला है,
जो अकिंचन है, त्यागी है, (E) जो संग और आसक्ति से विरत है, (१०) जो प्रबुद्ध है, जो क्षमाशील है, जो जितेन्द्रिय है, (११) जो चरम शरीरी है, (१२) जो मेधावी है, मार्ग-अमार्ग को जानता है, (१३) जो संसर्ग-रहित है, अल्पेच्छ है, (१४) जो अहिंसक है, अविरोधी है, जो सत्यवादी है, जो
अचौर्यव्रती है, जो अतृष्ण है, जो निःसंशय है, जो पवित्र है, जो अनुस्रोतगामी है, जो निःक्लेश है, जो
प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति को जानता है और (१५) जो क्षीणाश्रव है, अर्हत् है, जिसके पूर्व, पश्चात् और
मध्य में कुछ नहीं है, जो सम्पूर्ण ज्ञानी है वह ब्राह्मण है।
उत्तराध्ययन के अनुसार ब्राह्मण (१) जो संयोग में प्रसन्न नहीं होता, वियोग में खिन्न
नही होता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, जो पवित्र है, जो अभय है, जो अहिंसक है, जो सत्यनष्टि है, जो अचौर्यव्रती है, जो ब्रह्मचारी है,
जो अनासक्त है, (८) जो गृहत्यागी है,
जो अकिंचन है, (१०) जो गृहस्थों में अनासक्त है और (११) जो समस्त कर्मों से मुक्त है, वह ब्राह्मण कहलाता है।
महाभारत के अनुसार ब्राह्मण (१) जो लोगों के बीच रहता हुआ भी असंग होने के
कारण सूना रहता है, (२) जो जिस किसी वस्तु से अपना शरीर ढंक लेता है, (३) जो रूखा-सूखा खा कर भी भूख मिटा लेता है, (४) जो जहां कहीं भी सो रहता है,
जो लोकेषणा से विरत है, जिसने स्वाद को जीत लिया है, जो स्त्रियों में आसक्त नहीं होता,
जो सम्मान पा कर गर्व नहीं करता, (७) जो तिरस्कार पा कर खिन्न नहीं होता, (८) जिसने सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान दे दिया है, (E) जो अनासक्त है, आकाश की तरह निर्लेप है, (१०) जो किसी भी वस्तु को अपना नहीं मानता, (११) जो एकाकी विचरण करता है, जो शान्त है, (१२) जिसका जीवन धर्म के लिए होता, जिसका धर्म हरि
(आत्मा) के लिए होता है, जो रात-दिन धर्म में लीन
रहता है, (१३) जो निस्तृष्ण है, जो अहिंसक है, जो नमस्कार और
स्तुति से दूर रहता है, जो सब प्रकार के बन्धनों से
मुक्त है, (१४) जिसके मोह और पाप दूर हो गए हैं, जो इहलोक
और परलोक के भोगों में आसक्त नहीं होता-वह ब्राह्मण है-ब्रह्मज्ञानी है।
धम्मपद तथा सुत्तनिपात्त के अनुसार ब्राह्मण
(१) 'जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो अनासक्त
(२) (३)
जो ध्यानी है, निर्मल है, आसनबद्ध है, उत्तमार्थी है, जो पाप-कर्म से विरत है,
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