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उत्तरज्झयणाणि
पर कहीं भी उनका नामोल्लेख नहीं मिलता।
श्रेणिक के अनेक पुत्र थे । अनुत्तरोपपातिक' तथा निरयावलिका में उनके नाम इस प्रकार हैं
(१) जाली *
(२) मयाली
(३) उवयाली
(४) पुरिससेण
(५) वारिसेण
(६) दीर्घदंत
(७) लष्टदंत (८) वेहल्ल
(E) वेहायस
(१०) अभयकुमार (११) दीर्घसेन
(१२) महासेन
(१३) लष्टदंत
(१४) मूढदन्त
(१५) सुद्धदन्त
(१६) हल्ल
(१७) दुम (१८) दुमसेन
(१९) महादुमसेन (२०) सीह
(२१) सीहसेन (२२) महासीहसेन
(२३) पूर्णसेन
(२४) कालीकुमार
(२५) सुकालकुमार
(२६) महाकालकुमार (२७) महाकृष्णकुमार (२८) सुकृष्णकुमार (२६) महाकृष्णकुमार (३०) वीरकृष्णकुमार
(३१) रायकृष्णकुमार
(२२) सेगकृष्णकुमार (३३) महासेणकृष्णकुमार (२४) कृषिक
(३५) नंदिसेन
श्रेणिक के जीवन का विस्तार से वर्णन निरयावलिका में है ज्ञाताधर्मकथा में श्रेणिक की पत्नी धारिणी से उत्पन्न मेघकुमार इसके भावी तीर्थकर जीवन का विस्तार स्थानांग (६६२) की वृत्ति का उल्लेख है। ( पत्र ४५८ - ४६८) में है ।
इनमें से अधिकांश पुत्र राजा श्रेणिक के जीवन काल में ही जिन शासन में प्रव्रजित हो भगवान् महावीर के जीवन काल में ही स्वर्गवासी हो गए।
जाली आदि प्रथम पांच कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह-बारह वर्ष तक और अन्तिम दो ने पांच-पांच वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। इसी प्रकार दीर्घसेन आदि १३ कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया।"
१. अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रथम वर्ग तथा द्वितीया वर्ग । २. निरयावलिका, १
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परिशिष्ट ४ : व्यक्ति परिचय
इतने उल्लेख हैं कि उनके अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि वह जैनधर्मावलम्बी था। उनका जीवन भगवान् महावीर की जीवन घटनाओं से इतना संपृक्त था कि स्थान-स्थान पर भगवान् को श्रेणिक की बातें कहते पाते हैं। इसके अनेक पुत्र तथा रानियों का जैन शासन में प्रव्रजित होना भी इसी ओर संकेत करता है कि वह जैन धर्मावलम्बी था। बौद्ध ग्रन्थ उसे महात्मा बुद्ध का भक्त मानते हैं। कई विद्वान् यह भी मानते हैं कि महाराज श्रेणिक जीवन के पूर्वार्द्ध में जैन रहा होगा, किन्तु उत्तरार्द्ध में वह बौद्ध बन गया था। इसीलिए जैन कथा-ग्रन्थों में उसके नरक जाने का उल्लेख मिलता है। नरक-गमन की बात वस्तु स्थिति का निरूपण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह पहले जैन था और बाद में बौद्ध हो गया। नरक -गमन के साथ-साथ भावी तीर्थङ्कर का उल्लेख भी मिलता है। कई यह भी अनुमान करते हैं कि वह किसी धर्म विशेष का अनुयायी नहीं बना किन्तु जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के प्रति समभाव रखता था तथा सब में उसका अनुराग था।
कुछ भी हो जैन - साहित्य में जिस विस्तार से उसका तथा उसके परिवार का वर्णन मिलता है, वह अन्यत्र नहीं है। श्रेणिक का सम्पूर्ण जीवन तथा आगामी जीवन का इतिहास जैन-ग्रन्थों में सन्दृब्ध है। यदि उसका जैनधर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध नहीं होता तो इतना विस्तृत उल्लेख जैन ग्रन्थों में कभी नहीं मिलता।
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श्रेणिक की अनेक रानियां भी भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुई थीं । आगम तथा आगमेतर ग्रन्थों में श्रेणिक से सम्बन्धित
३. जाली आदि प्रथम सात पुत्र तथा दीर्घसेन से पुण्यसेन तक के तेरह पुत्र ( कुल २० पुत्र) धारिणी से उत्पन्न हुए थे (देखिए— अनुत्तरोपपातिक दिशा, वर्ग १, २)
४. वेहल्ल और वेहायस—ये दोनों चेल्लणा के पुत्र थे।
५. अभयकुमार वेणातट ( आधुनिक कृष्णा नदी के तट पर ) के व्यापारी
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की पुत्री नन्दा का पुत्र था (अनुत्तरोपपातिक दशा, वर्ग १) | बौद्ध-ग्रन्थों में अभय को उज्जैनी की नर्तकी 'पद्मावती' का पुत्र बताया है। (डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० १२३) । कुछ विद्वान् इसे नर्तकी आम्रपाली का पुत्र बताते हैं (डॉ० ला ट्राइब्स इन एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० ३२८ ) ।
६. कूणिक चेल्लणा का पुत्र था। इसका दूसरा नाम अशोकचन्द्र था । देखिए आवश्यक चूर्णि उत्तरभाग, पत्र १६७ ।
७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १० सर्ग ६, श्लोक ३२० ।
८. ज्ञाताधर्मकथा प्रथम भाग, पत्र १६ ।
६. अणुत्तरोपपातिकदशा, वर्ग १।
अनाथी मुनि (२०१६) ये कौशाम्बी नगरी के रहने वाले थे। इनके पिता बहुत धनाढ्य थे।" एक बार बचपन में ये नेत्र रोग से पीड़ित हुए। विपुल- दाह के कारण सारे शरीर से भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। चतुष्पाद चिकित्सा कराई गई, पर व्यर्थ । भाई- बन्धु भी उनकी वेदना को बंटा नहीं सके। अत्यन्त निराश हो, उन्होंने सोचा- 'यदि मैं इस वेदना से मुक्त हो जाऊं, तो प्रव्रज्या स्वीकार कर लूंगा।' वे रोग मुक्त हो गए। माता-पिता की आज्ञा से वे दीक्षित हुए। एक बार राजगृह के मण्डिकुक्षि” चैत्य में महाराज श्रेणिक अनाथी मुनि से मिले।" मुनि ने राजा को सनाथ और अनाथ का धर्म समझाया। राजा
१०. वही, वर्ग २ ।
११. कई विद्वान् इनके पिता का नाम 'धनसंचय' देते हैं। इस नामकरण
का आधार उत्तराध्ययन (२०1१८) में आए 'पभूयधणसंचयो' शब्द है, परन्तु यह आधार भ्रामक है। यह शब्द उनके पिता की आढ्यता का द्योतक हो सकता है, न कि नाम का यदि हम नाम के रूप में केवल 'धनसंचय' शब्द लेते हैं, तो 'पूभय' शब्द शेष रह जाता है और अकेले में इसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। टीकाकार इस विषय में मौन हैं।
१२. दीर्घनिकाय, भाग २, पृ० ६१ में इसे 'मद्दकुच्छि' नाम से परिचित किया है।
१३. डॉ० राधाकुमुद बनर्जी ( हिन्दू सिविलाइजेशन, पृ० १८७) मण्डिकुक्षि
में राजा श्रेणिक के धर्मानुरक्त होने की बात बताते हैं किन्तु वे अनाथी मुनि के स्थान पर अनगारसिंह (२०५८) शब्द से भगवान् महावीर का ग्रहण करते हैं। परन्तु यह भ्रामक है। क्योंकि स्वयं मुनि ( अनाथी) अपने मुंह से अपना परिचय देते हैं और अपने को कौशाम्बी का निवासी बताते हैं। देखिए उत्तराध्ययन, २०१८ |
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