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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३६ श्लोक १५-५० टि० ११,१२
एवं (८) उत्कृष्ट अनन्त - अनन्त । असद्भाव होने से यह भेद गणना में नहीं लिया गया है
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जो राशि आए, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत असंख्येय होता है। एक और मिलाने से उत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है। एक और मिलाने से जघन्य युक्त असंख्येय होता है । जघन्य युक्त असंख्येय की राशि को, जघन्य युक्त असंख्येय राशि से जघन्य युक्त असंख्येय राशि से जघन्य युक्त असंख्येय बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकालने पर शेष राशि मध्यम परीत असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है 1
जघन्य असंख्येय असंख्येय राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट असंख्येय होती है। एक और मिलाने से जघन्य असंख्येय असंख्येय होता है।
जघन्य संख्येय संख्या दो हैं। एक संख्या गणना संख्या में नहीं आती। क्योंकि लेनदेन के व्यवहार में अल्पतम होने के कारण एक की गणना नहीं होती। 'संख्यायते इति संख्या' अर्थात् जो विभक्त हो सके, वह संख्या है। इस दृष्टि से जघन्य संख्या दो से प्रारम्भ होती है।
जघन्य संख्या दो है और अन्तिम संख्या अनन्त है। संख्या के सारे विकल्पों को कल्पना के माध्यम से इस प्रकार समझ सकते हैं—
चार प्याले हैं-अनवस्थित, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका। चारों प्याले एक लाख योजन लम्बे, एक लाख योजन चौड़े, एक हजार योजन गहरे, गोलाकार और जंबूद्वीप की जगति प्रमाण ऊंचे हैं। पहले अवस्थित प्याले को सरसों के दाने से इतना भरें कि एक दाना उसमें और डालें तो वह न ठहर सके। उस प्याले का पहला दाना जंबूद्वीप में, दूसरा लवणसमुद्र में तीसरा धातकीखंड में इस प्रकार द्वीप और समुद्र में क्रमशः दाने गिराते चले जाएं। (जम्बूद्वीप एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, लवणसमुद्र उससे दूना और धातकीखंड उससे दूना है, इस प्रकार द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र के बाद द्वीप एक-दूसरे से दूना है) । असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं | अन्तिम दाना जिस समुद्र या द्वीप में गिराएं, उस प्रमाण का दूसरी बार अनवस्थिति प्याला बनाएं। फिर उससे आगे उसी प्रकार अनवस्थित प्याले का एक-एक दाना गिराते जाएं। (एक बार अवस्थिति प्याला खाली हो जाए तो एक दाना शलाका प्याले में डालें)। इस क्रम में एक-एक दाना डाल कर शलाका प्याले को भरें। शलाका प्याला इतना भर जाए कि उसमें एक दाना भी और डालें तो वह न टिक सके। एक बार शलाका प्याला भरने पर प्रतिशलाका में एक दाना डालें। जब इस क्रम से प्रतिशलाका प्याला भर जाए तो एक दाना महाशलाका प्याले में डालें। इस क्रम से महाशलाका प्याला भरने के बाद प्रतिशलाका प्याला भरें, फिर शलाका प्याला भरें, फिर अनवस्थित प्याला भरें। दूसरे रूप में इसे सरलता से इस प्रकार समझ सकते हैं
अनवस्थित प्यालाशलाका प्यालाप्रतिशलाका प्याला
एक दाना शलाका एक दाना प्रतिशलाका
एक दाना महाशलाका
चारों प्यालों के भर जाने के बाद सब दानों का एक ढेर करें। उस राशि में से दो दानें हाथ में लें। शेष ढेर मध्यम संख्यात है। हाथ का एक दाना मिलाने से उत्कृष्ट संख्यात होता है। हाथ का दूसरा दाना मिलाने से जघन्य परीत असंख्यात होता है ।
जघन्य परीत असंख्येय की राशि को जघन्य परीत असंख्येय की राशि से जघन्य परीत असंख्येय बार गुणा करें।
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जघन्य असंख्येय असंख्येय राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम असंख्येय असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होती है। एक और मिलाने से जघन्य परीत अनन्त होता है।
जघन्य परीत अनन्त राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत अनन्त होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत अनन्त होती है। एक और मिलाने से जघन्य युक्त अनन्त होती है।
जघन्य युक्त अनन्त राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत अनन्त होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत अनन्त होती है। एक और मिलाने से जघन्य अनन्त अनन्त होती है । जघन्य अनन्त अनन्त से आगे की संख्या सब मध्यम अनन्त अनन्त होती है। क्योंकि उत्कृष्ट अनन्त अनन्त नहीं होता
११. संस्थान की अपेक्षा से (संठाणओ)
पुद्गल के जो असाधारण धर्म हैं, उनमें से संस्थान भी एक है। उसके दो भेद हैं- ( १ ) इत्थंस्थ और (२) अनित्थंस्थ । जिसका त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार नियत हो, उसे ' इत्थंस्थ' कहा जाता है तथा जिसका कोई निर्णीत आकार न हो, उसे 'अनित्थंस्थ' कहते हैं।
इत्यस्थ के पांच प्रकार हैं- (१) परिमंडल चूड़ी की तरह गोल, (२) वृत्त - गेंद की तरह वर्तुलाकार, (३) त्र्यनत्रिकोण, (४) चतुरस्रवौकोन और (५) आयत- रस्सी की
तरह लम्बा |
१२. (श्लोक ४८-५० )
सिद्ध होने के बाद सब जीव समान स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं, उनमें कोई उपाधि जनित भेद नहीं रहता। फिर भी
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