Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 681
________________ उत्तरज्झयणाणि ६४० अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७ (३) तथा प्रकार के शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं करना यह एक ही प्रकार है। से दूसरों को विस्मित करना। मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में इसके स्थान पर मूलाराधना तीन-तीन प्रकार हैं(१) कन्दर्प, (१) चलशीलता--कन्दर्प और कौत्कुच्य का बार-बार (२) कौत्कुच्य, प्रयोग करना। (३) चल-शीलता, दुःशीलता-बिना विचारे तत्काल बोलना, शरत्-काल (४) हास्य-कथा और में दर्प से उद्धत बैल की तरह शीघ्र चलना, बिना (५) दूसरों को विस्मित करना।' सोचे समझे काम करना। प्रवचनसारोद्धार (३) हास्य-कथा या हास्य-करण—वेश परिवर्तन आदि (१) कन्दर्प, के द्वारा दूसरों को हंसाना। (२) कौत्कुच्य, दूसरों को विस्मित करना—इन्द्रजाल, मन्त्र, प्रहेलिका (३) दुःशीलता, आदि कुतूहलों के द्वारा विस्मय उत्पन्न करना ।१० (४) हास्य-करण और २. आभियोगी भावना के प्रकार(५) दूसरों को विस्मित करना। उत्तराध्ययन मूलाराधना प्रवचनसारोद्वार कन्दर्प-वाणी का असभ्य प्रयोग। उत्तराध्ययन और (१) मन्त्रयोग (१) मन्त्राभियोग, (१) कौतुक, प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के अनुसार इसके पांच अर्थ होते ___और (२) कौतुक और (२) भूति-कर्म, हैं--(१) ठहाका मार कर हंसना, (२) गुरु आदि के साथ व्यंग (२) भूति-कर्म। (३) भूति-कर्म।" (३) प्रश्न में बोलना, (३) काम-कथा करना, (४) काम का उपदेश देना (४) प्रश्नाप्रश्न और और (५) काम की प्रशंसा करना। (५) निमित्त।२ कौत्कुच्य–काया का असभ्य प्रयोग।' उत्तराध्ययन और मन्त्रयोग--मन्त्र तथा उससे संबंधित द्रव्यों का प्रयोग प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के अनुसार इसके दो प्रकार हैं- करना। (१) काय-कौत्कुच्य-भौं, आंख, मुंह आदि अवयवों को इस मन्त्राभियोग--कुमारी आदि पात्रों में भूत का आवेश प्रकार बनाव करना जिससे दूसरे लोग हंस पड़े। (२) वाक्- उत्पन्न करना। कौत्कुच्य–विविध जीव-जन्तुओं की, ऐसी बोली बोलना, सिट्टी भूति-कर्म-राख, मिट्टी अथवा धागे के द्वारा मकान, बजाना, जिससे दूसरे लोग हंस पड़े। उत्तराध्ययन में तथाप्रकार शरीर आदि का परिवेष्टन करना। बच्चों की रक्षा के लिए के शील-स्वभाव, हास्य तथा विकथा से दूसरों को विस्मित भूति का प्रयोग करना अथवा भूतों की क्रीड़ा दिखाना भी १. मूलाराधना, ३१८०: कंदप्पकुक्कुआइय, चलसीला णिच्चहासणकहो य। ८. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ३६८ : भवतो मातर करोमीति विभावितो य परं, कदपं भावणं कुणइ।। कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलशीलः। २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४२ : ८. प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। कंदप्पे कुक्कुइए, दोसीलत्ते य हासकरणे य। १०. (क) मूलाराधना दर्पण, पृ० ३६८ : विभावितो मंत्रेद्रजालादिकुहकप्रदर्शनेन परिविम्हियजणणो, ऽवि य कन्दप्पो ऽणेगहा तह य।। विस्मयनयनम्। ३. मूलाराधना विजयोदया, पृ० ३६८ : रागोद्रेकात्प्रहाससम्मिश्रो ऽशिष्ट- (ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८० : इन्द्रजालप्रभृतिभिः कुतूहलेः वाक्प्रयोगः कन्दर्पः। प्रहेलिकाकुहेटिकादिभिश्च तथाविधग्राम्यलोकप्रसिद्धैर्यात्स्वय४. (क) बृहृवृत्ति, पत्र ७०६ : कन्दर्प—अट्टहासहसनम् अनिभृतालापाश्च मविस्मयमानो बालिशप्रायस्य जनस्य मनोविभ्रममुत्पादयति गुर्वादिना ऽपि सह निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च तत्परविस्मयजननम्। कन्दर्पः। ११. मूलाराधना, ३१८२ : (ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु। ५. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ३६८ : अशिष्टकायप्रयोगः कौत्कच्यम्। इड्ढिरससादहेर्दू, अभिओगं भावणं कुणइ।। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : कौक्रुच्यं द्विधा -कायकौक्रुच्य वाक्कौक्रुच्यं १२. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४४ : च, तत्र कायकौकुच्यं यत्स्वयमहसन्नैव भूनयनवदनादि तथा करोति कोउय भूईकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसणिहिं। यथाऽन्यो हसति....तज्जल्पति येनान्यो हसति तथा नानाविधा- तहय निमित्तेणं, चिय पंचवियप्पा भवे सा य।। जीवविरुतानि मुखातोद्यवादितां च विधत्ते तद्वाक्कोच्यम्। १३. बृहवृत्ति, पत्र ७१० : 'मंतायोग' ति सूत्रत्वान् मन्त्राश्च योगाश्च(ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। तथाविधद्रव्यसम्बन्धा मंत्रयोग। बृहवृत्ति, पत्र ७०६ : तथा यच्छीलं च—फलनिरपेक्षा वृत्तिः स्वभावश्च- १४. मूलाराधना दर्पण, पृ ४०० : मत्राभियोगः कुमार्यादिपात्रे भूतावेशकरणम्। परविस्मयोत्पादनाभिसन्धिनैव तत्तन्मुखविकारादिक हसनं च-अट्टहासादि १५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७१० : "भूत्या' भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा विकथाश्वपरिविस्मापकविविधोल्लापरूपाः शीलस्वभावहसनविकथास्ताभिः कर्म-रक्षार्थं वसत्यादेः परिवेष्टनं भूतिकर्म। 'विस्मापयन्' सविस्मयं कुर्वन्। (ख) प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८१। काम Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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