Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 727
________________ उत्तरज्झयणाणि ६८६ परिशिष्ट ३: सूक्त मेत्तिं भूएसु कप्पए। ६।२ सब जीवों के साथ मैत्री रखो। न चित्ता तायए भासा। ६।१० भाषा में शरण मत ढूंढ़ो। कम्मसच्चा हु पाणिणो। ७।२० किया हुआ कर्म कभी विफल नहीं होता। जायाए घासमेसेज्जा रसगिद्धे न सिया भिक्खाए। ८।११ मुनि जीवन-निर्वाह के लिए खाए, रस-लोलुप न बने। समय गोयम ! मा पमायए। १०।१ एक क्षण के लिए भी प्रमाद मत करो। मा वंतं पुणो वि आइए। १०।२९ वमन को फिर मत चाटो। महप्पसाया इसिणो हवंति। १२।३१ ऋषि महान् प्रसन्न-चित्त होते हैं। न हु मुणी कोवपरा हवंति।१२।३१ मुनि कोप नहीं किया करते। आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि। १३।२० मुक्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करो। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म। १३।२३ कर्म कर्त्ता के पीछे दौड़ता है। मा कासि कम्माई महालयाई। १३॥ २६ असद् कर्म मत करो। वेया अहीया न भवंति ताणं। १४।१२ वेद पढ़ने पर भी त्राण नहीं होते। घणेण किं धम्मधुराहिगारे। १४।१७ धन से धर्म की गाड़ी कब चलती है? अभयदाया भवाहि य। १८।११ - अभय का दान दो। अणिच्चे जीव लोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि। १८।११ यह संसार अनित्य है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो! पडति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। १८।२५ पाप करने वाला घोर नरक में जाता है। दिव्वं च गई गच्छति चरित्ता धम्ममारियं । १८।२५ धर्म करने वाला दिव्य गति में जाता है। चइत्ताणं इमं देहं गन्तव्बमवसस्स मे। १९१६ इस शरीर को छोड़कर एक दिन निश्चित ही चले जाना है। निम्ममत्तं सुदुक्करं। १९।२९ ममत्व का त्याग करना सरल नहीं है। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं। १९३८ साधुत्व क्या है, लोहे के चने चबाना है। इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किवि वि दुक्करं। १९। ४४ उसके लिए कुछ भी दुःसाध्य नहीं है, जिसकी प्यास बुझ चुकी है। पडिकम्म को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं ? १९१७६ जंगली जानवरों व पक्षियों की परिचर्या कौन करता है ? वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं। १९९८ धन दुःख बढ़ाने वाला है। माणुस्सं खु सुदुल्लह। २०।११ मनुष्य जीवन बहुत मूल्यवान् है। अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि। २०।१२ तू स्वयं अनाथ है, दूसरों का नाथ कैसे होगा? न त अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। २०१४८ कण्ठ छेदने वाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसा बिगड़ा हुआ मन करता है। पियमणियं सव्व तितिक्खएज्जा। २१ ॥१५ मुनि प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे। न यावि पूर्य गरहं च संजए। २१ ॥१५ मुनि पूजा और गर्दा-इन दोनों को न चाहे। अणुन्नए नावणए महेसी। २१ । २० महर्षि न अभिमान करे और न दीन बने। नेहपासा भयंकरा। २३। ४३ स्नेह का बन्धन बड़ा भयंकर होता है। न तं तायंति दुस्सील। २५।२८ दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो। ३२॥१६ मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं। ३२१९ दुःख काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। समलेढुकंचणे भिक्खू। ३५।१३ भिक्षु के लिए मिट्टी का ढेला और कंचन समान होते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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