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उत्तरज्झयणाणि
उत्तराध्ययन
(१) शस्त्र - ग्रहण,
(२) विष-भक्षण,
(३) स्वयं को अग्नि में जलाना,
(४) जल में डूब मरना और
(३) मर्यादा से अतिरिक्त उपकरण रखना । मूलाराधना
(१) उन्मार्ग देशना,
(२) मार्गदूषण और
(३) मार्ग - विप्रतिपत्ति ।" प्रवचनसारोद्धार
(१) उन्मार्ग देशना,
(२) मार्ग दूषण,
(३) मार्ग-विप्रतिपत्ति,
(४) मोह और
(५) मोह-जनन । २
शस्त्र-ग्रहण- -शस्त्र ग्रहण आदि कार्यों से उन्मार्ग की प्राप्ति और मार्ग की हानि होती है। यह सम्मोहा भावना है।
9. मूलाराधना ३।१८४ :
उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गविप्पडिवणी य । मोहेण य मोहितो, समोहं भावणं कुणइ ।। २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४६ :
उम्मग्गदेसणा, मग्गदूसणं मग्गविपडिवित्ती य । मोहो य मोहजणणं, एवं सा हवइ पंचविहा ।।
६४२
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ७११ : संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात्, अनेन चोन्मार्गप्रतिपत्त्या मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता, तथा चार्थतो मोही भावनोक्ता ।
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अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७
उन्मार्ग देशना मिथ्या दर्शन व अव्रत का उपदेश । मार्ग दूषण मार्ग में दोष दिखलाना, जैसे ज्ञान से ही मोक्ष होता है, दर्शन और चारित्र से क्या ? चारित्र से मोक्ष होता है, ज्ञान से क्या ?*
मार्ग-विप्रतिपत्ति- ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्ष के मार्ग नहीं— ऐसा मानना या उन तीनों के प्रतिकूल आचरण
करना ।
-शून्य
मोह— गूढ़तम तत्त्वों में मूढ़ हो जाना अथवा चारित्र-: तीर्थिकों का ऐश्वर्य देखकर ललचा जाना ।"
मोह - जनन - स्वभाव की विचित्रता या कपटवश दूसरे व्यक्तियों में मोह उत्पन्न करना । "
उत्तराध्ययन में इन पांच भावनाओं के प्रकार कुछ कम हैं, मूलाराधना में उनसे अधिक हैं और प्रवचनसारोद्धार में पूरे पच्चीस हैं अर्थात् प्रत्येक भावना के पांच-पांच प्रकार हैं |
पाद-टिप्पण में उद्धृत मूलाराधना की गाथाओं से यह बहुत स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ-काल में श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में अत्यधिक सामीप्य रहा है।
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४. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ४०२ मार्गस्य दूषणं नाम ज्ञानादेव मोक्षः किं दर्शनाचारित्राभ्यां ? चारित्रमेवोपयः किं ज्ञानेनेति कथयन्मार्गस्य दूषको भवति ।
५. वही, पृ० ४०२ मार्गे रत्नत्रयात्मके विप्रतिपन्नः एष न मुक्तेर्मार्ग इति यस्तद्विरुद्धाचरणः ।
६. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८३ निकाममुपहतमतिः सन्नतिगहनेषु ज्ञानादिविचारेषु यन्मुह्यति यच्च परतीर्थिकसम्बन्धिनीं नानाविधां समृद्धिमालोक्य मुह्यति स संमोहः ।
७. वही, पत्र १८३ तथा स्वभावेन कपटेन वा दर्शनान्तरेषु परस्य मोहमुत्पादयति तन्मोहजननम् ।
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