Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 679
________________ उत्तरज्झयणाणि कंद (६८ |३) बिना रेसे वाली गुद्देदार जड़ भूमि में रहने वाला वृक्ष का अवयव ।" हलिद्दा (६६।३) (सं० हरिद्रा ) हल्दी पीत और सोने के रंग की होती है। इसका नाम है 'वरवर्णिनी' अर्थात् अच्छा वर्ण करने वाली । प्राचीन समय में हल्दी का तेल बहुतायत से लगाया जाता था। मद्रास की तरफ अब भी अपना वर्ण सुधारने के लिए स्त्रियां इसका प्रयोग करती हैं। यह वात रोग, हृदय रोग, प्रमेय आदि रोगों के लिए अति उत्तम मानी जाती है। सुश्रुत ( चि० अ० ६) में तो कहा है कि इससे कुष्ठ रोग भी नष्ट हो जाता है। वस्तुतः यह रक्त शुद्ध करने वाली है, इसी दृष्टि से पीठी तथा आहार में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। * १९. (श्लोक १०९ - ११० ) M उत्तराध्ययन की अपेक्षा प्रज्ञापना (पद १ ) में अग्नि के प्रकार अधिक प्राप्त हैं उत्तराध्ययन ( १ ) अंगार - जलता हुआ कोयला (२) मुर्मुर - भस्म मिश्रित अग्नि-कण (३) अग्नि -लोहपिंड में प्रविष्ट तेजस् (४) अर्चि प्रदीप्त अग्नि से विच्छिन्न अग्नि- शाखा (५) ज्वाला-प्रदीप्त अग्नि से प्रतिबद्ध अग्नि- शाखा (६) उल्का (७) विद्युत् प्रज्ञापना (१) अंगार (२) ज्वाला (३) मुर्मुर (४) अर्चि (५) आलात जलता हुआ ठंठ (६) शुद्धाग्नि (७) उल्का (८) अशनि-वज्रपात की अग्नि (६) निर्मात (१०) संघर्ष समुत्थित (११) सूर्यकान्त मणि निस्तृत ६३८ अध्ययन ३६ श्लोक १०६-१६५ टि० १६-२२ (२) मण्डलिकावात - बबंडर घनवात— ठोस पवन (३) (४) गुंजावात गुंजने वाला पवन शुद्धवात - मन्द पवन संवर्तकवात - प्रलयकारी पवन २०. ( श्लोक ११९ - ११९ ) यहां वायु के पांच प्रकारों का निर्देश तथा अन्य प्रकारों का संकेत किया गया है। प्रज्ञापना (पद १) में इसके उन्नीस प्रकार प्राप्त हैं उत्तराध्ययन (9) उत्कलिकावात - मिश्रित पवन १. प्रवचनसारोद्धार, पृ० ५७ । २. अभिधान चिन्तामणि कोश, ३ : हरिद्रा कांचनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी 1 ३. संस्कृत साहित्या मा वनस्पति, पृ० ४५१ । Jain Education International (५) (६) प्रज्ञापना (१) प्राचीनवात — पूर्वी पवन (२) प्रतीचीनवात पश्चिमी पवन दक्षिणवात - दक्षिणी पवन उदीचीनवात उत्तरी पवन ऊर्ध्ववात ऊर्ध्वमुखी पवन (३) (४) (५) (६) अघोधात अधोमुखी पवन (७) तिर्यग्वात- क्षैतिज पवन (८) विदिग्वात — चौवाई (६) वातोद्भ्रम अनियमित पवन -- (१०) वातोत्कलिका समुद्री पवन (११) वातमण्डली— अनिर्धार्य पवन (१२) उत्कलिकायात (१३) मण्डलिकावात ५. ६. (१४) गुंजावात (१५) झंझावात - वर्षायुक्त पवन (१६) संवर्तकवात (१७) घनवात (१८) तनुवात - विरल पवन (१६) शुद्धवात २१. (श्लोक १२७ – १४९ ) सूत्रधर ने इन श्लोकों में द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के अनेक उदाहरण दिए हैं। वृत्तिकार ने कुछेक शब्दों की पहचान दी है। शेष के लिए उन्होंने लिखा है--' शेषास्तु यथासम्प्रदायं वाच्याः', 'एवमन्येऽपि यथासम्प्रदायं वाच्याः ५ । इसका फलितार्थ है कि वृत्तिकार के समय में ये शब्द अपना अर्थबोध खो चुके थे। चतुरिन्द्रिय के भेद - प्रभेदों के विषय में वृत्तिकार का कथन है कि कुछेक जीवों के अर्थ अज्ञात हैं। वे अन्यान्य देशों में ज्ञात हो सकते हैं। उनसे इनका अर्थबोध किया जा सकता है तथा विशिष्ट परम्परा से भी ये ज्ञात हो सकते हैं।" २२. सम्मूमि मनुष्य (संमुच्छिमा य मणुया) गर्भ और उपपात के बिना जहां कहीं भी उत्पन्न होने वाले, चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर शरीर की रचना करने वाले जीव सम्मूच्छिम या सम्मूर्च्छनज कहलाते हैं। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६५ । वही, पत्र ६६६ । वही, पत्र ६६६ एतद्भेदाश्च केचिद् अप्रतीता एव, अन्ये तु तत् तद् देशप्रसिद्धितो विशिष्टसम्प्रदायाच्च अभिधेयाः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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