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उत्तरज्झयणाणि
(१५) अनेक सिद्ध — एक समय में अनेक जीव सिद्ध होते हैं, उत्कृष्टतः १०८ हो सकते हैं, वे । सिद्ध अवस्था में आत्म-विकास की दृष्टि से सिद्ध जीव सर्वथा समान होते हैं, केवल उनकी अवगाहना में भेद होता है। सिद्ध जीव समूचे लोक में व्याप्त नहीं होते, किन्तु उनकी आत्मा एक परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है। पूर्वावस्था की उत्कृष्ट — पांच सौ धनुष्य की अवगाहना वाले जीवों की आत्मा तीन सौ तैंतीस धनुष्य और एक हाथ आठ अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है।' पूर्वावस्था की मध्यम-दो हाथ से अधिक और पांच सौ धनुष्य से कम अवगाहना वाले जीवों की आत्मा अपने अन्तिम शरीर की अवगाहना से त्रिभागहीन क्षेत्र में अवस्थित होती है। पूर्वावस्था की जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले जीवों की आत्मा एक हाथ आठ अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है।
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(१४) एक सिद्ध - एक समय में एक जीव सिद्ध होता है, वह ।
सिद्धों के विषय में विशेष जानकारी के लिए देखिएऔपपातिक, सूत्र १६५, गाथा १-२२ तथा आवश्यक- नियुक्ति,
गाथा ६५८-६८८ ।
१३. (श्लोक ५५-५६)
ये दोनों श्लोक विशेषावश्यक भाष्य में गाथा ३१५८-३१५६ के रूप में उल्लिखित हैं। मलधारी हेमचन्द ने टीका में इन्हें नियुक्ति गाथा माना है।
१४. ईषत् - प्राग्भारा (ईसीपब्भार )
औपपातिक (सूत्र १६३) में सिद्धशिला के बारह नाम बतलाए गए हैं। उनमें यह दूसरा नाम है। १५. (श्लोक ७१-७७)
इन श्लोकों व गाथाओं में मृदु पृथ्वी के सात और कठिन पृथ्वी के ३६ प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें से कुछ एक विशेष शब्दों के अर्थ और कुछ विशेष ज्ञातव्य बातें यहां प्रस्तुत की जा रही हैं—
पणगमट्टिया— अत्यन्त सूक्ष्म रजोमयी मृत्तिका । आचार्य इसका मरुपर्यटिका (पपडी) अर्थ करते हैं
१. ओवाइयं, सूत्र १६५, गाथा ५
तिष्णि सया तेत्तीसा, धणूत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो । एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया ।।
२.
आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरीय वृत्ति, पत्र ५४५ हस्तद्वयादूर्ध्वं पञ्चधनुः शतेभ्यो ऽर्वाक् सर्वत्रापि मध्यमावगाहनाभावात् । ३. ओवाइयं, सूत्र १६५, गाथा ७ :
कुछ लोक
एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाई अट्ठ भवे ।
एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया ।।
४. विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति, पृ० १२१६ : एतद् नियुक्तिश्लोकद्वयं सुबोधम् । ५. बृहदवृत्ति पत्र ६८६ ।
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अध्ययन ३६ : श्लोक ५५-७७ टि० १३-१५
प्रकाश के अनुसार नदी आदि के प्रवाह के चले जाने पर पीछे जो कीचड़ के रूप में कोमल और चिकनी मिट्टी रहती है, वह 'पनक मृतिका' है।
उवले वृत्त पाषाण, गोल पत्थर । वइरे
इसके अनेक भेद होते हैं। जैसे
वज्रमणि, हीरा । उत्पत्ति स्थान के आधार पर
(१) सभा राष्ट्रक – विदर्भ – बरार देश में उत्पन्न होने वाला ।
(२) मध्यम राष्ट्रक कौशल देश में उत्पन्न होने वाला । (३) काश्मीर राष्ट्रक काश्मीर में उत्पन्न होने वाला । (४) श्रीकटनक— श्रीकटन नामक पर्वत पर उत्पन्न होने
६.
७.
वाला।
(५) मणिमन्तक उत्तर की ओर के मणिमन्तक नामक पर्वत पर उत्पन्न होने वाला ।
(६) इन्द्रवानक -कलिंग देश में उत्पन्न होने वाला ।
इन उपर्युक्त स्थानों के अतिरिक्त और भी अनेक स्थान हैं, जहां पर हीरा उत्पन्न होता है, जैसे—खान, विशेष जल-प्रवाह और हाथी दान्त की जड़ आदि ।
हीरा अनेक रंगों का होता है, जैसे
(१) मार्जाराक्षक मार्जार की आंख के समान । (२) शिरीषपुष्पक—– शिरीष के फूल के समान ।
(३) गोमूत्रक गोमूत्र के समान ।
(४) गोमेदक गोरोचना के समान ।
(५) शुद्ध स्फटिक अत्यन्त श्वेत वर्ण स्फटिक के समान । (६) मुलाटीपुष्पक वर्ण-मुलाटी के फूल के समान । उत्तम हीरा निम्नोक्त गुणों वाला होता है— मोटा, चिकना, भारी चोट को सहने वाला, बराबर कोनों वाला, पानी से भरे हुए पीतल आदि के बर्तन में हीरा डाल कर उस वर्तन के हिलाए जाने पर बर्तन में लकीर डालने वाला, तकवे की तरह घूमने वाला और चमकदार। ऐसा हीरा प्रशस्त माना जाता है । "
नष्टकोण - अर्थात् शिखर- रहित ( कोनों से रहित), अश्रि-रहित ( तीक्ष्ण कोनों से रहित ) तथा एक ओर अधिक
वही, पत्र ६८६ । लोकप्रकाश सर्ग ७।५
नद्यादिपूरागते देशे, तत्रातिपिच्छिले वरे ।
मृदुश्लक्ष्णा पंकरूपा, सप्तमी पनका त्रिधा ।।
८. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ सभाराष्ट्रकं मध्यमराष्ट्रकं कश्मीरराष्ट्रक
श्रीकटनकं मणिमन्तकमिन्द्रवानकं च वज्रम् ।
६. वही, २।११।२६ खनिः स्मेतः प्रकीणकं च योनयः ।
१०. वही, २।११।२६
मार्जाराक्षकं च शिरीषपुष्पकं गोमूत्रकं गोमेदकं शुद्धस्फटिक मूलाटीपुष्पकवर्ण मणिवर्णानामन्यतमवर्णमितिवज्रवर्णाः ।
११. वही, २।११।२६ स्थूलं स्निग्धं गुरु प्रहारसहं समकोटिकं भाजनलेखितं कुभ्रामि भ्राजिष्णु च प्रशस्तम् ।
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