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चरण-विधि
५३९ अध्ययन ३१ : श्लोक ७-११ टि० ८-१७ विशेष विवरण के लिए देखिए-३०।३५ का टिप्पण।
रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी मिलाइए-३४।३१।
साधुओं के होती है। ८. व्रतों के (वएसु)
(७) जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां ही यहां व्रत का प्रयोग 'महाव्रत' के अर्थ में हुआ है। वे
सहज बिछे हुए सिलापट्ट या काष्ठपट्ट प्राप्त हो तो पांच हैं--(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य,
लूंगा अन्यथा ऊकडू या नैषधिक-आसन में बैठे-बैठे और (५) अपरिग्रह। देखिए-२१।१२।
रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी ९. क्रियाओं के (किरियासु)
साधुओं के होती है। स्थानांग (२।२-३७) में अनेक प्रकार की क्रियाओं का १३. (भयट्ठाणेसु सत्तसु) उल्लेख है। यहां उनमें से पांच क्रियाओं का ग्रहण किया गया भय के स्थान सात हैंहै। वे इस प्रकार हैं--(१) कायिकी, (२) अधिकरणिकी, (१) इहलोक-भय-सजातीय से भय-जैसे मनुष्य को (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५) प्राणातिपातिकी।'
मनुष्य से भय, देव को देव से भय।। १०. छह लेश्याओं...में (लेसासु)
(२) परलोक-भय-विजातीय से भय-जैसे मनुष्य को देखिए-अध्ययन ३४ ।
देव, तिर्यंच आदि का भय। ११. आहार के (विधि-निषेध के) छह कारणों में (छक्के
(३) आदान-भय-धन आदि पदार्थों के अपहरण करने
वाले से होने वाला भय। आहारकारणे)
(४) अकस्मात्-भय-किसी बाह्य निमित्त के बिना ही साधु को छह कारणों से आहार करना चाहिए और छह
उत्पन्न होने वाला भय, अपने ही विकल्पों से होने कारणों से नहीं करना चाहिए। देखिए–२६ ।३२,३४ ।
वाला भय। १२. (पिंडोग्गहपडिमासु)
(५) वेदना-भय-पीड़ा आदि से उत्पन्न भय। विशेष प्रतिमाधर मुनि आहार और अवग्रह (स्थान)
(६) मरण-भय-मृत्यु का भय। सम्बन्धी सात प्रकार के अभिग्रह धारण करते थे। जैसे
(७) अश्लोक-भय-अकीर्ति का भय। आहार-ग्रहण सम्बन्धी अभिग्रह-सात एषणाएं। देखिए
देखिए-ठाणं, ७।२७। ३०।२५ का टिप्पण।
१४. आठ मद-स्थानों में (मयेसु) अवग्रह (स्थान) सम्बन्धी अभिग्रह। अवग्रह-प्रतिमा का
आठ मद-स्थान इस प्रकार हैंअर्थ है 'स्थान के लिए प्रतिज्ञा या संकल्प'। वे सात हैं
(१) जाति-मद,
(५) तपो-मद, (१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूंगा, दूसरे में नहीं।
(२) कुल-मद,
(६) श्रुत-मद, (२) मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूंगा।
(३) बल-मद,
(७) लाभ-मद, दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में मैं रहूंगा। यह
(४) रूप-मद,
(८) ऐश्वर्य-मद। गच्छान्तरगत साधुओं के होती है।
देखिए--ठाणं, ८।२१, । समवाओ, समवाय ८। (३) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा, किन्तु
१५. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में (बंभगुत्तीसु) दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधुओं के होती है।
- ब्रह्मचर्य की रक्षा के साधन को 'गुप्ति' कहते हैं।
देखिए.-सोलहवां अध्ययन; स्थानांग, ६६६३; समवायांग, मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूंगा,
समवाय ६। परन्तु दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में रहूंगा। यह जिनकल्पदशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के र
१६. दस प्रकार के भिक्षु-धर्म में (भिक्खुधम्ममि दसविहे) होती है।
देखिए-२।२६ का टिप्पण। (५) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के १७. उपासको की ग्यारह प्रतिमाओं (उवासगाणं पडिमास)
लिए नहीं। यह जिनकल्पिक साधुओं के होती है। उपासक-श्रावक की प्रतिमाएं ग्यारह हैं(६) जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां (१) दर्शन-श्रावक,
पलाल आदि का संस्तारक प्राप्त हो तो लूंगा (२) कृत-व्रत श्रावक,
अन्यथा ऊकडू या नैषधिक-आसन में बैठे-बैठे (३) कृत-सामायिक, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१३ : क्रियासु–कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीपारिताप- ३. समवायांग (समवाय ७) में वेदना-भय के स्थान पर आजीव-भय का निकीप्राणातिपातरूपासु।
उल्लेख है। २. स्थानांग, ७।१०, वृत्ति, पत्र ३८६-३८७।
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