Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 637
________________ उत्तरज्झयणाणि ५९६ अध्ययन ३५ : श्लोक १६-२० टि० ३-६ चाहिए। चंक्रमण करते समय, आधी आंख से मुर्दा-घाटी सोसानिकङ्गमिति नेकगुणावहत्ता। ( मुर्दा जलाने के स्थान) को देखते हुए चंक्रमण करना निब्बाननिन्न हृदयेन निसेवितब्ब।। चाहिए। श्मशान में जाते हुए भी महामार्ग से उतरकर, बे-राह (बहुत संवेग उत्पन्न होता है। घमंड नहीं आता। वह जाना चाहिए। दिन में ही आलम्बन को भलीभांति देखकर शांति (=निर्वाण) को खोजते हुए भलीभांति उद्योग करता है, (मन में) बैठा लेना चाहिए। इस प्रकार (करने से) उसके लिए इसलिए अनेक गुणों को लाने वाले श्मशानिकांग का निर्वाण वह रात्रि भयानक न होगी। अमनुष्यों के शोर करके घूमते हुए की ओर झुके हुए हृदय से सेवा करना चाहिए।' भी किसी चीज से मारना नहीं चाहिए। श्मशान नित्य जाना ३. सूत्र के अनुसार (जहासुत्तं) चाहिए। (रात्री के) बिचले प्रहर को श्मशान में बिता कर 'यथासत्र' का अर्थ है-..-आगम-निर्दिष्ट एषणा के दोषों पिछले पहर में लौटना चाहिए। ऐसा अंगुत्ततर भाणक कहते से रहित भिक्षा।' इसकी संपूर्ण विधि के लिए देखें-दसवेआलियं हैं। अमनुष्यों के प्रिय तिल की पिट्ठी (=तिल का कसार), उर्द का पांचवां अध्ययन। से मिलाकर बनाया भात (=खिचड़ी), मछली, मांस, दूध, तेल, ४. रस (स्वाद) के लिए (रसट्टाए) गड़ आदि खाद्य भाज्य को नहीं खाना चाहिए। (लागा क) घरा रस का एक अर्थ है स्वाद । वत्तिकार ने इसका वैकल्पिक में नहीं जाना चाहिए। यह इसका विधान है। अर्थ-धातुविशेष किया है। शरीर की प्रधान धातुएं सात हैंप्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उत्कृष्ट का रस. रक्त मांस, मेदा, अस्थि मज्जा और शक्र। 'इन धातुओं जहां हमेशा मुर्दे जलाए जाते हैं, हमेशा मुर्दे पड़े रहते हैं, रहत र, के उपचय के लिए'-रस का यह अर्थ भी हो सकता है। पचय हमेशा रोना-पीटना (लगा) रहता है, वहीं बसना चाहिए। ५. जीवन निर्वाह के लिए (जवणट्ठाए) मध्यम के लिए तीनों में से एक के भी होने पर ठीक है। मृदु - इसका अर्थ है—संयम जीवन के निर्वाह के लिए। इसके के लिए उक्त प्रकार से श्मशान को पाने मात्र पर। इन तीनों संस्कृत रूप दो हो सकत हैं--यापनार्थ, यमनार्थं । 'यापनार्थ'का भी धुतांग अ-श्मशान (=जो श्मशान न हो) में वास करने का अर्थ है संयम जीवन के निर्वाह के लिए। 'यमनार्थं' का से टूट जाता है। 'श्मशान को नहीं जाने के दिन' (ऐसा) अर्थ है---इन्द्रियों पर नियंत्रण के लिए अथवा इन्द्रिय-विजय अंगुत्तर-भाणक कहते हैं। यह भेद (=वनाश) है। की साधना करने के लिए। ये दोनों अर्थ प्रासंगिक हैं। यह गुण है..-मरने के ख्यान बने रहना. अप्रमाद के साथ विहरना, अशुभ निमित्त का लाभ, कामराग का दूरीकरण, ६. (श्लोक २०) हमेशा शरीर के स्वभाव को देखना, संवेग की अधिकता, मुनि जब यह देखे कि आयुक्षय निकट है—मृत्यु सन्निकट आरोग्यता, आदि घमण्डों का त्याग, भय और भयानकता की है. तब वह आहार का परित्याग कर अनशन करे। वृत्तिकार सहनशीलता, अमनुष्यों का गौरवनीय होना, अल्पेच्छ आदि के ने यहां एक सुन्दर शिक्षापद प्रस्तुत किया है। अनशन करने अनुसार वृत्ति का होना। वाला तत्काल अनशन न करे। वह अनशन से पूर्व 'संलेखना' सोसानिकं हि मरणानुसतिप्पभावा। के क्रम को स्वीकार करे। तत्काल अनशन करने से अनेक निदागतम्पिन फुसन्ति पमाददोसा।। बाधाएं उपस्थिति हो सकती हैंसम्पस्सतो च कुणपानि बहूनि तस्स। 'देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहि खिज्जमाणाहिं। कामानुराग वसगम्पि न होति वित्त।। जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरमकालमि।।' (श्मशानिक को मरणानुस्मृति के प्रभाव से सोते हुए भी जो साधक संलेखना के क्रम से गुजरने से पूर्व ही प्रमाद से प्राप्त होने वाले दोष नहीं छपाते और बहुत से मर्दो अनशन कर लेता है, उसके मृत्यु के समय आर्त्तध्यान हो को देखते हुए, उसका चित्त कामराग के भी वशीभत नहीं सकता है, क्योंकि भोजन न करने की अवस्था में शरीर की होता।) धातुओं का क्षय होता है और तब शरीर में अनेक उपद्रव खड़े संवेगमेति विपुलं न मदं उपेति। हो जाते हैं। यह आर्त्त-ध्यान का एक कारण बनता है।" सम्मा अथो घटति निब्बुतिमेसमानो। १. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृ०७५-७६। . २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६७ : सूत्रम्-आगमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्रम् आगमाभिहित उद्गमैषणाद्यवाधित इत्युक्तं भवति। ३. वही, पत्र ६६७ : रसट्टाए त्ति रसाथ सरसमिदमहमास्वादयामीति धातुविशेषो वा रसः स चाशेषधातूपलक्षणं ततस्तद् उपचयः स्यादित्येतदर्थ .........। ४. बही, पत्र ६६८। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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