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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३५ : श्लोक १६-२०
मुनि शुक्ल ध्यान ध्याए। अनिदान और अकिंचन रहे। वह जीवन भर व्युत्सृष्टकाय (देहाध्यास से मुक्त) होकर विहार करे।
१६. सुक्कझाणं झियाएज्जा
अणियाणे अकिंचणे। वोसट्ठकाए विहरेज्जा
जाव कालस्स पज्जओ।। २०. निज्जूहिऊण आहारं
कालधम उवट्ठिए। जहिऊण माणुसं बोंदिं
पहू दुक्खे विमुच्चई।। २१. निम्ममो निरहंकारो
वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिब्बुए।।
–त्ति बेमि।
शुक्लध्यानं ध्यायेत् अनिदानोऽकिंचनः। व्युत्सृष्टकायो विहरेत् यावत्कालस्य पर्ययः ।। निर्दूह्य आहारं कालधर्मे उपस्थिते। त्यक्त्वा मानुषं शरीरं प्रभुर्दुःखैर्विमुच्यते।। निर्ममो निरहंकारो वीतरागोऽनाश्रवः सम्प्राप्तः केवलं ज्ञानं शाश्वतं परिनिर्वृतः।।
समर्थ मुनि काल-धर्म में उपस्थित होने पर आहार का परित्याग करके, मनुष्य शरीर को छोड़ कर दुःखों से विमुक्त हो जाता है।
ममकार से शून्य और निरहंकार, वीतराग और आश्रवों से रहित मुनि शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिर्वृत हो जाता है—सर्वथा आत्मस्थ हो जाता है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
-इति ब्रवीमि।
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