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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन ३६ : श्लोक २५२-२६०
२५२. पढमे वासचउक्कम्मि
विगईनिज्जूहणं करे। बिइए वासचउक्कम्मि विचित्तं तु तवं चरे।।
६२८ प्रथमे वर्षचतुष्के विकृतिनि!हणं कुर्यात् । द्वितीये वर्षचतुष्के विचित्रं तु तपश्चरेत् ।।
संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्षों में विकृतियों (रसों) का परित्याग करे। दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप (उपवास, बेला, तेला आदि) का आचरण करे।
२५३. एगंतरमायाम
कटु संवच्छरे दुवे। तओ संवच्छरद्धं तु नाइविगिळं तवं चरे।।
एकान्तरमायाम कृत्वा संवत्सरौ द्वौ। ततः संवत्सरार्द्ध तु नातिविकृष्टं तपश्चरेत् ।।
फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास तथा एक दिन भोजन) करे। भोजन के दिन आचाम्ल करे। ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक कोई भी विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि) न करे।
२५४.तओ संवच्छरद्धं तु
विगिट्ठ तु तवं चरे। परिमियं चेव आयाम तंमि संवच्छरे करे।।
ततः संवत्सरार्द्ध तु विकृष्टं तु तपश्चरेत्। परिमितश्चैवायाम तस्मिन् संवत्सरे कुर्यात् ।।
ग्यारहवें वर्ष के पिछले छह महीनों में विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे।
२५५. कोडीसहियमायाम
कटु संवच्छरे मुणी। मासद्धमासिएणं तु आहारेण तवं चरे।।
कोटिसहितमायाम कृत्वा संवत्सरे मुनिः। मासिकेनार्द्धमासिकेन तु आहारेण तपश्चरेत् ।।
बारहवें वर्ष में मुनि कोटि-सहित (निरन्तर) आचाम्ल करे। फिर पक्ष या मास का आहर-त्याग (अनशन) करे।२६
२५६. कंदप्पमाभिओगं
कान्दी आभियोगी
कांदी भावना, आभियोगी भावना, किल्बिषिकी भावना, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च। किल्बिषिकी मोही आसुरत्वं च। मोही भावना तथा आसुरी भावना ये पांच भावनाएं एयाओ दुग्गईओ एता दुर्गतयः
दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के समय ये सम्यग-दर्शन मरणम्मि विराहिया होति।। मरणे विराधिक भवन्ति ।। आदि की विराधना करती हैं।२७
२५७. मिच्छादसणरत्ता
सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही।।
मिथ्यादर्शनरक्ताः सनिदानाः खलु हिंसकाः। इति ये नियन्ते जीवाः तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः।।
मिथ्या-दर्शन में रक्त, सनिदान और हिंसक दशा में जो मरते हैं, उनके लिए फिर बोधि बहुत दुर्लभ होती है।
२५८. सम्मइंसणरत्ता
अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा सुलहा तेसिं भवे बोही।।
सम्यग्दर्शनरक्ताः
सम्यग्-दर्शन में रक्त, अनिदान और शुक्ल-लेश्या अनिदानाः शुक्ललेश्यामवगाढाः। में प्रवर्तमान जो जीव मरते हैं, उनके लिए बोधि इति ये म्रियन्ते जीवाः सुलभ है। सुलभा तेषां भवेद् बोधिः।।
२५६. मिच्छादंसणरत्ता
मिथ्यादर्शनरक्ताः
मिथ्यादर्शन में रक्त, सनिदान और कृष्ण-लेश्या में सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः। प्रवर्तमान जो जीव मरते हैं, उनके लिए फिर बोधि इय जे मरंति जीवा
इति ये म्रियन्ते जीवाः बहुत दुर्लभ होती है। तेसिं पुण दुल्लहा बोही।। तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः ।। २६०. जिणवयणे अणुरत्ता जिनवचने अनुरक्ताः
जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का जिणवयणं जे करेंति भावेण। जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन। भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल ओर असंक्लिष्ट अमला असंकिलिट्ठा अमला असंक्लिष्टाः
होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो ते होंति परित्तसंसारी।। ते भवन्ति परीतसंसारिणः।। जाते हैं।
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