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जीवाजीवविभक्ति
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अध्ययन ३६ : श्लोक २४३-२५१
२४३. तेत्तीस सागराउ
उक्कोसेण ठिई भवे। चउसुं पि विजयाईसुं जहन्नेणेक्कतीसई।।
त्रयस्त्रिंशत् सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। चतुर्ध्वपि विजयादिषु जघन्येनैकत्रिंशत् ।।
विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः इकतीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम की है।
महाविमान वासी सर्वार्थसिद्धक देवों की जघन्यतः और उत्कृष्टतः आयु-स्थिति तेतीस सागरोपम की
२४४. अजहन्नमणुक्कोसा
तेत्तीसं सागरोवमा। महाविमाण सव्वठे ठिई एसा वियाहिया ।।
अजघन्यानुत्कर्षा त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि। महाविमानसर्वार्थे स्थितिरेषा व्याख्याता।।
सारे ही देवों की जितनी आयु-स्थिति है उतनी ही उनकी जघन्य या उत्कृष्ट काय-स्थिति है।
२४५. जा चेव उ आउठिई
देवाणं तु वियाहिया। सा तेसिं कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे।।
या चैव तु आयुःस्थितिः देवानां तु व्याख्याता। सा तेषां कायस्थितिः जघन्योत्कर्षिता भवेत्।।
२४६. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए देवाणं हुज्ज अंतरं।।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये देवानां भवेदन्तरम्।।
उनका अन्तर—अपने-अपने काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
२४७. एएसि वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्सओ।।
एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।।
२४८. संसारत्था य सिद्धा य
इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा वि य।।
संसारस्थाश्च सिद्धाश्च इति जीवा व्याख्याताः। रूपिणश्चैव अरूपिणश्च अजीव द्विविधा अपि च।।
संसारी और सिद्ध--इन दोनों प्रकार के जीवों की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार रूपी और अरूपीइन दोनों प्रकार के अजीवों की व्याख्या की गई है।
२४६. इइ जीवमजीवे य
सोच्चा सद्दहिऊण य। सव्वनयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी।।
इति जीवानजीवांश्च श्रुत्वा श्रद्धाय च। सर्वनयानामनुमते रमेत संयमे मुनिः।।
इस प्रकार जीव और अजीव के स्वरूप को सुनकर, उसमें श्रद्धा उत्पन्न कर मुनि ज्ञान-क्रिया आदि सभी नयों के द्वारा अनुमत संयम में रमण करे।
मुनि अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर इस क्रमिक प्रयत्न से आत्मा को कसे—संलेखना करे।"
ततो बहूनि वर्षाणि श्रामण्यमनपाल्य। अनेन क्रमयोगेन आत्मानं संलिखेन् मुनिः।।
२५०. तओ बहूणि वासाणि
सामण्णमणपालिया। इमेण कमजोगेण
अप्पाणं संलिहे मुणी।। २५१. बारसेव उ वासाइं
संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया ।।
संलेखना उत्कृष्टतः-बारह वर्षों, मध्यमतः एक वर्ष तथा जघन्यतः छह मास की होती है।
द्वादशैव तु वर्षाणि संलेखोत्कर्षिता भवेत्। संवत्सरं मध्यमिका षण्मासा च जघन्यका।।
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