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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन ३६ : श्लोक १२६-१३४
१२६. ओराला तसा जे उ
चउहा ते पकित्तिया। बेइंदियतेइंदिय चउरोपंचिंदिया चेव।।
६१४ 'ओराला' वसा ये तु चतुर्धा ते प्रकीर्तिताः। द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाः चतुष्पंचेन्द्रियाश्चैव।।
स्थूल त्रस-कायिक जीव चार प्रकार के हैं(१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचेन्द्रिय।
१२७. बेइंदिया उ जे जीवा
दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे।।
द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझसे सुनो।
द्वीन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः। पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणुत मे।।
कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख, शंखनक,
१२८. किमिणो सोमंगला चेव
अलसा माइवाहया। वासीमुहा य सिप्पीया संखा संखणगा तहा।।
कृमयः सौमङ्गलाश्चैव अलसा मातृवाहकाः। वासीमुखाश्च शुक्तयः शङ्खा शङ्खनकास्तथा।।
पल्लोय, अणुल्लक, कोडी, जौंक, जालक, चन्दनिया,
१२६. पल्लोयाणुल्लया चेव
तहेव य वराडगा। जलूगा जालगा चेव चंदणा य तहेव य।।
'पल्लोया' 'अणुल्लया' चैव तथैव च वराटकाः। जलौका जालकाश्चैव चन्दनाश्च तथैव च।।
आदि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में ही प्राप्य होते हैं, समूचे लोक में नहीं।
१३०. इइ बेइंदिया एए
णेगहा एवमायओ। लोगगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ।।
इति द्वीन्द्रिया एते अनेकधा एवमादयः। लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः।।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त है।
१३१. संतई पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बारह वर्ष की है।
१३२. वासाइं बारसे व उ
उक्कोसेण वियाहिया। बेइंदियआउट्ठिई अंतोमुहुत्तं जहन्निया।।
वर्षाणि द्वादशैव तु उत्कर्षेण व्याख्याता। द्वीन्द्रियायःस्थितिः अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।।
उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है।
संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। द्वीन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुंचताम् ।।
१३३. संखिज्जकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं पहन्नयं। बेइंदियकायट्ठिई
तं कायं तु अमुंचओ।। १३४. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। बेइंदियजीवाणं अंतरेयं वियाहियं ।।
उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। द्वीन्द्रिय-जीवानां अन्तरं च व्याख्यातम् ।।
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