Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 661
________________ उत्तरज्झयणाणि ६२० अध्ययन ३६ : श्लोक १८०-१८८ १८०. एगखुरा दुखुरा चेव गंडीपयसणप्पया। हयमाइगोणमाइगयमाइसीहमाइणो।। एकखुरा दिखुराश्चैव गण्डीपदाः सनखपदाः। हयादयो गवादयः गजादयः सिंहादयः।। (१) एक खुर-घोड़े आदि, (२) दो खुर-बैल आदि, (३) गंडीपद हाथी आदि। (४) सनखपदसिंह आदि। १८१. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे। गोहाई अहिमाई य एक्केक्का णेगहा भवे ।। भूजउरगपरिसपश्चि परिसर्पा द्विविधा भवेयुः। गोधादयो अह्यादयश्च एकैके अनेकधा भवेयुः।। परिसर्प के दो प्रकार हैं-(१) भुजपरिसर्प हाथों के बल चलने वाले गोह आदि, (२) उरःपरिसर्पपेट के बल चलने वाले सांप आदि। ये दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। १८२. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ।। लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम्।। वे लोक के एक भाग में होते हैं, समूचे लोक में नहीं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह को अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १८३. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम पूर्व की है। १८४. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउट्ठिई थलयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि तु त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिः स्थलचराणां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। १८५. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण तु साहिया। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि तु त्रीणि तु उत्कर्षेण तु साधिका। पूर्वकोटिपृथक्त्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम–एक स्थलचर जीवों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। १८६. कायट्ठिई थलयराणं अंतरं तेसिमं भवे। कालमणंतमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। कायस्थितिः स्थलचराणां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। कालमनन्तमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् ।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १८७. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। १८८. चम्मे उ लोमपक्खी य तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्वा पक्खिणो य चउव्विहा।। चर्म (पक्षिणः) तु रोमपक्षिणश्च तृतीयाः समुद्गपक्षिणः। विततपक्षिणश्च बोद्धव्याः पक्षिणश्च चतुर्विधाः ।। खेचर जीव चार प्रकार के हैं-(१) चर्म-पक्षी, (२) रोमपक्षी, (३) समुद्गपक्षी और (४) विततपक्षी। Jain Education Intemational Far Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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