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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३६ :श्लोक १०८-११६
१०८. दुविहा तेउजीवा उ
सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।।
द्विविधास्तेजोजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः ।।
तेजस्कायिक जीवों के दो प्रकार हैं—सूक्ष्म और वादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं।
१०६. बायरा जे उ पज्जत्ता
णेगहा ते वियाहिया। इंगाले मुम्मुरे अगणी अच्चि जाला तहेव य।।
बादरा ये तु पर्याप्ताः अनेकधा ते व्याख्याताः। अंगारो मुमुरोऽग्निः अर्चिाला तथैव च।।
बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के अनेक भेद हैंअंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला,
उल्का, विद्युत् आदि। सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता।
११०. उक्का विज्जू य बोद्धव्वा
णेगहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहमा ते वियाहिया।।
उल्का विद्युच्च बोद्धव्याः अनेकधा एवमादयः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः।।
१११. सुहुमा सव्वलोगम्मि
लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउविहं ।।
सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इतः कालविभागं तु तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम्।।
वे (सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव) समूचे लोक में और बादर तेजस्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त है। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
११२. संतइं पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्यः अनादिका: अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन दिन-रात की है।
११३. तिण्णेव अहोरत्ता
उक्कोसेण वियाहिया। आउट्टिई तेऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।।
त्रीण्येवाहोरात्राणि उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिस्तेजसाम् अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।।
उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल की है।
११४. असंखकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायट्ठिई तेऊणं तं कायं तु अमुंचओ।।
असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिस्तेजसाम् तं कायं तु अमुंचताम् ।।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये तेजोजीवानामन्तरम्।।
उनका अन्तर-तेजस्काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है।
११५. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए
तेउजीवाण अंतरं।। ११६. एएसिं वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद हैं।
एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।।
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