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जीवाजीवविभक्ति
अध्ययन ३६ : श्लोक ६६-१०७
६६. अस्सकण्णी य बोद्धव्वा
सोहकण्णी तहेव य। मुसुंढी य हलिद्दा य णेगहा एवमायओ।।
६११ अश्वकर्णी च बोद्धव्या सिंहकर्णी तथैव च। मुषुण्डी च हरिद्रा च अनेकधा एवमादयः।।
अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा आदि। ये सब साधारण शरीर हैं।
१००. एगविहमणाणत्ता
सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा।।
एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे चे बादराः।।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में तथा बादर वनस्पतिकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१०१. संतई पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि या ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः दस हजार वर्ष की है।
१०२. दस चेव सहस्साइं
वासाणुक्कोसिया भवे। वणप्फईण आउं तु अंतोमुहुत्तं जहन्नगं ।।
दश चैव सहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। वनस्पतीनामायुस्तु अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्।।
उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल की है।
१०३. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायठिई पणगाणं तं कायं तु अमुंचओ।।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिः पनकानां तं कायं तु अमुंचताम् ।।
१०४. असंखकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए पणगजीवाण अंतरं ।।
असङ्ख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् वित्यक्ते स्वके काये। पनकजीवानामन्तरम्।।
उनका अन्तर-वनस्पतिकाय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल का है।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
१०५. एएसि वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।।
एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थनादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।।
इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः समासेन व्याख्याताः। इतस्तु त्रसान् त्रिविधान वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।।
यह तीन प्रकार के स्थावर जीवों का संक्षिप्त वर्णन है। अब तीन प्रकार के त्रस जीवों का क्रमशः निरूपण करूंगा।
१०६. इच्चेए थावरा तिविहा
समासेण वियाहिया। इत्तो उ तसे तिविहे
वुच्छामि अणुपुव्वसो।। १०७. तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा
उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे।।
तेजो वायुश्च बोद्धव्याः उदाराश्च त्रसास्तथा। इत्येते त्रसास्त्रिविधाः तेषां भेदान् शृणुत मे।।
तेजस्काय, वायुकाय और उदार त्रसकाय-ये तीन भेद त्रसकाय के हैं। अब इनके भेदों को मुझसे सुनो।
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