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जीवाजीवविभक्ति
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अध्ययन ३६ : श्लोक ११७-१२५
११७. दुविहा वाउजीवा उ
सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।।
द्विविधा वायुजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ता एवमेते द्विधा पुनः।।
वायुकायिक जीवों के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म ओर बादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं।
११८. बायरा जे उ पज्जत्ता
पंचहा ते पकित्तिया उक्कलियामंडलिया घणगुंजा सुद्धवाया य।।
बादरा ये तु पर्याप्ताः पंचधा ते प्रकीर्तिताः। उत्कलिका मण्डलिका धनगुंजाः शुद्धवाताश्च ।।
बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों के पांच भेद होते हैं-(१) उत्कालिका, (२) मण्डलिका, (३) घनवात, (४) गुंजावात और (५) शुद्धवात।
११६. संवट्टगवाते य
णेगविहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया।।
संवतकवाताश्च अनेकधा एवमादयः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः।।
उनके संवर्तक-वात आदि और भी अनेक प्रकार हैं। सूक्ष्म वायुकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता।२०
१२०. सुहुमा सव्वलोगम्मि
लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ।।
सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इत: कालविभागं तु तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ।।
वे (सूक्ष्म-वायुकायिक जीव) समूचे लोक में और बादर वायुकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१२१. संतई पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्य अनादिका: अपर्यवसिता अपि च। स्थिति प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन हजार वर्षों की है।
१२२. तिण्णेव सहस्साई
वासाणुक्कोसिया भवे। आउट्टिई वाऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।।
त्रीण्येव सहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। आयुःस्थितिर्वायूनाम् अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्।।
उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है।
१२३. असंखकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायट्ठिई वाऊणं तं कायं तु अमुंचओ।।
असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिर्वायूना तं कायं तु अमुंचताम्।।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये वायुजीवानामन्तरम्।।
उनका अन्तर--वायुकाय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है।
१२४. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए
वाउजीवाण अंतरं।। १२५. एएसिं वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वाऽपि विधानानि सहस्रशः।।
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