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अध्ययन ३५ : श्लोक-१८
परित्याग करे।
भक्त-पान के पकाने और पकवाने में हिंसा होती है, अतः प्राणों और भूतों की दया के लिए भिक्षु न पकाए और न पकवाए।
भक्त और पान के पकाने में जल और धान्य के आश्रित तथा पृथ्वी और काष्ट के आश्रित जीवों का हनन होता है, इसलिए भिक्षु न पकवाए।
अग्नि फैलने वाली, सब ओर से धार वाली और बहुत जीवों का विनाश करने वाली होती है, उसके समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं होता, इसलिए भिक्षु उसे न जलाए। क्रय और विक्रय से विरत, मिट्टी के ढेले और सोने को समान समझने वाला भिक्षु सोने और चांदी की मन से भी इच्छा न करे।
अनगार-मार्ग-गति
५९३ ६. तसाणं थावराणं च
त्रसानां स्थावराणां च सुहमाणं बायराण य। सूक्ष्माणां बादराणां च तम्हा गिहसमारंभ
तस्माद् गृहसमारम्भ संजओ परिवज्जए।। संयतः परिवर्जयेत् ।। १०. तहेव भत्तपाणेसु
तथैव भक्तपानेषु पयण पयावणेसु य।
पचनापाचनेषु च। पाणभूयदयट्ठाए
प्राणभूतदयार्थ न पये न पयावए।। न पचेत् न पाचयेत्।। ११. जलधन्ननिस्सिया जीवा
जल-धान्य-निश्रिता जीवाः पुढवीकट्ठनिस्सिया।
पृथिवीकाष्ठनिश्रिताः। हम्मति भत्तपाणेसु
हन्यन्ते भक्तपानेषु तम्हा भिक्खू न पायए।।
तस्माद् भिक्षुर्न पाचयेत् ।। १२. विसप्पे सव्वओधारे
विसर्पत् सर्वतोधारं बहुपाणविणासणे।
बहुप्राणिविनाशनम्। नत्थि जोइसमे सत्थे नास्ति ज्योतिःसमं शस्त्रं
तम्हा जोइं न दीवए।। तस्माज्ज्योतिर्न दीपयेत्।। १३. हिरण्णं जायरूवं च
हिरण्यं जातरूपं च मणसा वि न पत्थए। मानसाऽपि न प्रार्थयेत्। समलेठुकंचणे भिक्खू समलेष्टुकांचनो भिक्षुः
विरए कयविक्कए।। विरतः क्रयविक्रयात्।। १४. किणंतो कइओ होइ क्रीणन् क्रयिको भवति
विक्किणंतो य वाणिओ। विक्रीणन् च वाणिजः। कयविक्कयम्मि वट्टतो क्रयविक्रये वर्तमानः
भिक्खू न भवइ तारिसो।। भिक्षुर्न भवति तादृशः ।। १५. भिक्खियव्वं न केयव्वं भिक्षितव्यं न क्रेतव्यं
भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। भिक्षुणा भैक्षवृत्तिना। कयविक्कओ महादोसो क्रयविक्रयो महान् दोषो
भिक्खावत्ती सुहावहा ।। भिक्षावृत्तिः सुखावहा ।। १६. समुयाणं उछमेसिज्जा समुदानमुञ्छमेषयेत् जहासुत्तमणिंदियं।
यथासूत्रमनिन्दितम्। लाभालाभम्मि संतुझे लाभालाभे सन्तुष्टः
पिंडवायं चरे मुणी।। पिण्डपातं चरेत् मुनिः।। १७. अलोले न रसे गिद्धे अलोलो न रसे गृद्धो
जिब्भादंते अमुच्छिए। दान्तजिहोऽमूर्छितः। न रसट्ठाए भुंजिज्जा न रसा) भुंजीत
जवणट्ठाए महामुणी।। यापनार्थ महामुनिः।। १८. अच्चणं रयणं चेव
अचर्ना रचनां चैव वंदणं पूयणं तहा।
वन्दनं पूजनं तथा। इड्डीसक्कारसम्माणं
ऋद्धिसत्कारसम्मानं मणसा वि न पत्थए।।
मनसाऽपि न प्रार्थयेत्।।
वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक होता है और बेचने वाला वणिक् । क्रय और विक्रय में वर्तन करने वाला भिक्षु वैसा नहीं होता-उत्तम भिक्षु नहीं होता।
भिक्षा-वृत्ति वाले भिक्षु को भिक्षा ही करनी चाहिए, क्रय-विक्रय नहीं। क्रय-विक्रय महान् दोष है। भिक्षा-वृत्ति सुख को देने वाली है।
मुनि सूत्र के अनुसार, अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे। वह लाभ और अलाभ से सन्तुष्ट रहकर पिण्ड-पात (भिक्षा) की चर्या करे।
अलोलुप, रस में अगृद्ध, जीभ का दमन करने वाला और अमूच्छित महामुनि रस (स्वाद) के लिए न खाए, किन्तु जीवन-निर्वाह के लिए' खाए।
मुनि अर्चना, रचना (अक्षत, मोती आदि का स्वस्तिक बनाना), वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना (अभिलाषा) न करे।
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