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जीवाजीवविभक्ति
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अध्ययन ३६ : श्लोक ६३-७१
६३. तत्थ सिद्धा महाभागा
लोयग्गम्मि पइट्ठिया। भवप्पवंच उम्मुक्का सिद्धिं वरगई गया।।
तत्र सिद्धा महाभागाः लोकाग्रे प्रतिष्ठिताः। भवप्रपञ्चोन्मुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः ।। ।
भव-प्रपंच से उन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को प्राप्त होने वाले अनन्त शक्तिशाली सिद्ध वहां लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं।
६४. उस्सेहो जस्स जो होइ
भवम्मि चरिमम्मि उ। तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे।।
उत्सेधो यस्य यो भवति भवे चरमे तु। त्रिभागहीना ततश्च सिद्धानामवगाहना भवेत्।।
अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) अवगाहना सिद्ध होने वाले की होती है।
६५. एगत्तेण साईया
अपज्जवसिया वि य। पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य।।
एकत्वेन सादिकाः अपर्यवसिता अपि च। पृथुत्वेनानादिकाः अपर्यवसिता अपि च।।
एक-एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त और पृथुता (बहुत्व) की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है।
६६. अरूविणो जीवघणा
नाणदंसणसण्णिया। अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ।।
अरूपिणो जीवधनाः ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। अतुलं सुखं सम्प्राप्ता उपमा यस्य नास्ति तु।।
वे सिद्ध-जीव अरूप, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए)
और ज्ञान-दर्शन में सतत उपयुक्त होते हैं। उन्हें वैसा सुख प्राप्त होता है, जिसके लिए संसार में कोई उपमा नहीं है।
६७. लोएगदेसे ते सव्वे
नाणदंसणसण्णिया। संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगइं गया।।
लोकैकदेशे ते सर्वे ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। संसारपारनिस्तीर्णाः सिद्धिं वरगतिं गताः ।।
ज्ञान और दर्शन में सतत उपयुक्त, संसार-समुद्र से निस्तीर्ण और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को प्राप्त होने वाले सब सिद्ध लोक के एक देश में अवस्थित हैं।
संसारी जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। स्थावर तीन प्रकार के हैं
६८. संसारत्था उ जे जीवा
दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव थावरा तिविहा तहिं।।
संसारस्थास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते व्याख्याताः। त्रसाश्च स्थावराश्चैव स्थावरास्त्रिविधास्तत्र।।
पृथ्वी, जल और वनस्पति। ये स्थावर के तीन मूल भेद हैं। इनके उत्तर भेद मुझसे सुनो।
६६. पुढवी आउजीवा य
तहेव य वणस्सई। इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे।।
पृथिवी अब्जीवाश्च तथैव च वनस्पतिः। इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः तेषां भेदान् शृणुत मे।
पृथ्वीकाय के जीव दो प्रकार के हैं—सूक्ष्म और बादर। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं।
७०. दुविहा पुढवीजीवा उ
सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता
एवमेए दुहा पुणो।। ७१. बायरा जे उ पज्जत्ता
दुविहा ते वियाहिया। सण्हा खरा य बोद्धव्वा सण्हा सत्तविहा तहिं।।
द्विविधा पृथिवीजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः।। बादरा ये तु पर्याप्ताः द्विविधास्ते व्याख्याताः। श्लक्ष्णाः ख्राश्च बोद्धव्याः श्लक्ष्णाः सप्तविधास्तत्र।।
बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवों के दो भेद हैं-मृदु और कठोर। मृदु के सात भेद हैं :
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