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टिप्पण
१. ( श्लोक ७)
सातवेदनीय और असातवेदनीय के अनेक प्रकार हैं। प्रज्ञापना के अनुसार प्रत्येक के आठ-आठ प्रकार हैं। जिनके आधार पर सात और असात का वेदन होता है, उनके आधार पर ये भेद किए हैं। सातवेदनीय के आठ प्रकार- मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ गंध ओर मनोज्ञ स्पर्श तथा कायसुखता वाणीसुखता और मनःसुखता इनसे विपरीत असातावेदनीय के भेद हैं।"
२. ( श्लोक ११ )
चारित्र - मोहनीय कर्म के दो रूप हैं— (१) कषाय- मोहनीय और (२) नो-कषाय- मोहनीय । कषाय- मोहनीय कर्म के १६ प्रकार हैं
अनन्तानुबन्धी- (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ ।
अध्ययन ३३ : कर्मप्रकृति
अप्रत्याख्यानी — (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ ।
प्रत्याख्यानी – (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ ।
संज्वलन – (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । जो साधन मूलभूत कषायों को उत्तेजित करते हैं, वे 'नो - कषाय' कहलाते हैं। उनकी गणना दो प्रकार से हुई है। एक गणना के अनुसार वे नौ हैं- ( १ ) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा, (७) पुरुष-वेद, (८) स्त्री-वेद और (६) नपुंसक वेद । दूसरी गणना के अनुसार वे सात हैं- ( १ ) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा और (७) वेद, । २
३. (श्लोक १३)
शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म के अनेक प्रकार हैं। प्रज्ञापना में नामकर्म के बयालीस प्रकार निर्दिष्ट हैं और प्रत्येक भेद के अनेक अवान्तर भेद प्रतिपादित हैं। इसमें शुभ-अशुभ का भेद निर्दिष्ट नहीं है। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने शुभ
पण्णवणा, २३।३०,३१ ।
१.
२. वही, २३1३४-३६ ।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४३ ।
४. पण्णवणा, २३।३८-५६ ।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४४ ।
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नामकर्म के ३७ भेद तथा अशुभ नामकर्म के ३३ भेद उल्लिखित किए हैं।
४. (श्लोक १४)
गोत्र का अर्थ है 'कुलक्रमागत आचरण।' उच्च आचरण को 'उच्च गोत्रकर्म' और नीच आचरण को 'नीच गोत्रकर्म' कहा जाता है। वे आठ प्रकार के हैं। ये प्रकार उनके बंधनों के आधार पर माने गए हैं।
उच्च गोत्रकर्म बंध के आठ कारण हैं
(१) जाति का अमद,
(२) कुल का अमद,
(३) बल का अमद,
( ४ ) तपस्या का अमद, नीच गोत्रकर्म बंध के
(१) जाति का मद,
(२) कुल का मद,
(३) बल का मद,
( ४ ) तपस्या का मद, ५. (श्लोक १५)
२.
३.
प्रस्तुत श्लोक में अन्तराय कर्म के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं। बृहद्वृत्ति में उनकी व्याख्या इस प्रकार है
9.
६. गोम्मटसार, कर्मकांड, १३ :
आठ
(५) ऐश्वर्य का अमद,
७.
८.
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४५ ।
पण्णवणा, २३।५८ ।
वही, २३।५८ ।
(६) श्रुत का अमद, (७) लाभ का अमद और
दानान्तराय - दान लेने वाला भी विशिष्ट है, देय वस्तु भी विशिष्ट है और दाता दान के फल से अभिज्ञ है, किन्तु वह दान दे नहीं पाता। लाभान्तराय-दाता भी विशिष्ट है और याचक भी निपुण है किन्तु याचक की उपलब्धि में वह उपघात पैदा करता है।
भोगान्तराय—सम्पदा होने पर भी व्यक्ति के भोग में बाधा आती है। जो पदार्थ एक बार काम में आते हैं वे भाग कहलाते हैं, जैसे--पुष्प, आहार आदि ।
४. उपभोगान्तराय — वस्त्र, अलंकरण की प्राप्ति होने
(८) रूप का अमद । कारण हैं
(५) ऐश्वर्य का मद,
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(६) श्रुत का मद,
(७) लाभ का मद और (८) रूप का मद ।
सन्ताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा ।
उच्च णीचं चरणं उच्च नीचं हवे गोदं ।।
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