________________
उत्तरज्झयणाणि
५८०
अध्ययन ३४ : श्लोक ८-१८
संखंककुंदसंकासा
शङ्खाककुन्दसंकाशा शुक्ल लेश्या का वर्ण शंख, अंकमणि, कुंद-पुष्प, खीरपूरसमप्पभा। क्षीरपूरसमप्रभा।
दुग्ध-प्रवाह, चांदी व मुक्ताहार के समान होता है। रययहारसंकासा
रजतहारसंकाशा सुक्कलेसा उ वण्णओ।।। शुक्ललेश्या. तु वर्णतः।। १०. जह कडुयतुंबगरसो यथा कटुकतुम्बकरसः कडुवे तूम्वे, नीम व कटुक रोहिणी का रस जैसा
निंबरसो कडुयरोहिणिरसो वा। निम्बरसः कटुकरोहिणीरसो वा। कडुवा होता है, उससे भी अनन्त गुना कडुवा रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः
कृष्ण लेश्या का होता है। रसो उ किण्हाए नायव्वो।। रसस्तु कृष्णाया ज्ञातव्यः ।। ११. जह तिगडुयस्स य रसो यथा त्रिकटुकस्य च रसः त्रिकटु --सूंठ, पिपल और कालीमिर्च तथा गजपीपल
तिक्खो जह हस्थिपिप्पलीए वा। तीक्ष्णः यथा हस्तिपिप्पल्या वा। का रस जैसा तीखा होता है, उससे भी अनन्त गुना एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः
तीखा रस नील लेश्या का होता है। रसो उ नीलाए नायव्वो।। रसस्तु नीलाय ज्ञातव्यः।। १२. जह तरुणअंबगरसो यथा तरुणाम्रकरसः
कच्चे आम और कच्चे कपित्थ का रस जैसा तुवरकविट्ठस्स वावि जारिसओ। तुवरकपित्थरय वापि यादृशः।। कसैला होता है, उससे भी अनंत गुना कसैला रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुण:
कापोत लेश्या का होता है। रसो उ काऊए नायव्वो।। रसस्तु कापोताया ज्ञातव्यः ।। १३. जहपरिणयंबगरसो
यथा परिणतााम्रकरसः पके हुए आम और पके हुए कपित्थ का रस जैसा पक्ककविट्ठस्स वावि जारिसओ। पक्वकपित्थस्प वापि यादृशः।। खट-मीठा होता है, उससे भी अनंत गुना खट-मीठा एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः
रस तेजो लेश्या का होता है। रसो उ तेऊए नायव्वो।। रसस्तु तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः ।। १४. वरवारुणीए व रसो
वरवारुण्या इव रसः
प्रधान सुरा, विविध आसवों, मधु और मैरेयक विविहाण व आसवाण जारिसओ विविधानामिव आसवानां यादृशः। मदिरा का रस जैसा अम्ल-कसैला होता है, उससे महुमेरगस्स व रसो मधुमैरेयकस्येवरसः
भी अनन्त गुना' मीठा, मधुर और अम्ल-कसैला एत्तो पम्हाए परएणं ।। इतः पद्मायाः परकेण।। रस पद्म लेश्या का होता है। १५. खजूरमुद्दियरसो
खर्जूरमृद्धीकारसः
खजूर, दाख, क्षीर, खांड और शक्कर का रस जैसा खीररसो खंडसक्कररसो वा। क्षीररसः खण्डशर्करारसो वा। मीठा होता है, उससे भी अनंत गुना मीठा रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः
शुक्ल लेश्या का होता है। रसो उ सुक्काए नायव्वो।। रसस्तु शुक्लाया ज्ञातव्यः।। १६. जह गोमडस्स गंधो।
यथा गोमृतकस्य गंधः गाय, श्वान और सर्प के मृत कलेवर की जैसी गन्ध सुगमडगस्स व जहा अहिमडस्स। शुनकमृतकस्य वा यथाऽहिमृतकस्य होती है, उससे भी अनन्त गुना गन्ध तीनों अप्रशस्त एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणो
लेश्याओं की होती है। लेसाणं अप्पसत्थाणं ।।
लेश्यानामप्रशस्तानाम् ।। १७. जह सुरहिकुसुमगंधो यथा सुरभिकुसुमगंधः सुगन्धित पुष्पों और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों गंधवासाण पिस्समाणाणं।
गन्धवासानां पिष्यमाणानाम् । की जैसी गंध होती है, उससे भी अनन्त गुना गंध एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणः
तीनों प्रशस्त लेश्याओं की होती है। पसत्थलेसाण तिण्हं पि।।
प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि।। १८. जह करगयस्स फासो यथा क्रकचस्य स्पर्शः
करवत, गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का गोजिब्माए व सागपत्ताणं।
गोजिहायाश्च शाकपत्राणाम् । स्पर्श जैसा कर्कश होता है, उससे भी अनंत गुना एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणो
कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। लेसाणं अप्पसत्थाणं ।।
लेश्यानामप्रशस्तानाम्।।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org