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टिप्पण
अध्ययन ३४ : लेश्या-अध्ययन
१. (लेसज्झयणं...कम्मलेसाणं)
कषैला तथा अपक्व। नाममाला-में 'कषायस्तुवरो रसः'देखें- -इसी अध्ययन का आमुख।
तुवर का अर्थ कषाय है। हमने इसका अर्थ-अपक्व किया है। २. पद्म (पम्हा)
८. अनन्तगुना (परकेणं) 'पद्म' शब्द के प्राकृतरूप दो होते हैं-'पउम' और वृत्तिकार ने 'परएणं' का अर्थ इस प्रकार किया है'पम्म'। दिगम्बर साहित्य में पद्मलेश्या के लिए 'पउम', 'पम्म' पद्मलेश्या का रस आसवों से अनन्तानन्तगण मधर तथा
और 'पम्ह'.....ये तीनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं। 'पम्ह' का संस्कृत अम्ल-कषाय होता है। इसका तात्पर्य है--उन आसवों से रूप 'पक्ष्म' होता है, पद्म नहीं। यह संभव है कि उच्चारणभेद अत्यधिक मधुर रस वाला। के कारण 'पम्म' का 'पम्ह' रूप बन गया।
आज वैज्ञानिक प्रत्येक पदार्थ का औसतन मिठास ज्ञात ३. महिष (गवल)
कर लेते हैं। सूत्रकार का कथन है कि इसमें अनन्तगुना वृत्तिकार ने इसका महिषशृंग किया है।' शब्दकोश में
मिठास होता है। यह कैसे? इसका समाधान है कि अनन्तज्ञानी इसका अर्थ जंगली भैंसा प्राप्त होता है।
अपने ज्ञान के द्वारा उसके मिठास को जान लेते हैं। वह यंत्रों ४. द्रोण-काक (रिट्ठग)
के द्वारा नापा नहीं जा सकता। प्रज्ञापना में अनन्तगुन का
अर्थ-अत्यधिक किया है। वृत्तिकार ने रिष्ठ का मुख्य अर्थ-द्रोणकाक और वैकल्पिक
९. (श्लोक २०) अर्थ—फल विशेष किया है। यह 'रीठा' फल है। ५. तैल-कंटक (कोइलच्छद)
प्रस्तुत श्लोक में लेश्याओं के परिणामों की चर्चा है।
वृत्तिकार ने तारतम्य की अपेक्षा से उनको इस प्रकार उल्लिखित वृत्तिकार ने इसका अर्थ-तैलकंटक किया है और उन्होंने ।
किया हैइसकी पुष्टि में वृद्धसंप्रदाय का अभिमत उद्धृत किया है।"
० तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट इसका एक अर्थ 'कोयल की पांख' भी हो सकता है।
० नी परिणाम–तीनों के तीन-तीन प्रकार (३ x ३=E) ६. त्रिकटु का (तिगडुयस्स)
० सत्तावीस परिणाम–नौ के तीन-तीन प्रकार त्रिकटु में तीन वस्तुओं का मिश्रण होता है-सूंठ,
(EX ३=२७) पिप्पल और कालीमिर्च । इस के दो पर्यायवाची नाम हैं-व्योष,
० इक्यासी परिणाम–सत्ताईस के तीन-तीन प्रकार त्र्यूषण।
(२७४३-८१) ७. कच्चे (तुवर....)
० दो सौ तयालीस परिणाम-इक्यासीके तीन-तीन प्रस्तुत श्लोक में 'तरुण' शब्द आम्र के साथ प्रयुक्त है।
प्रकार (८१४३=२४३) इसका अर्थ है-अपक्व, कच्चा। 'तुवर' शब्द का प्रयोग प्रज्ञापना में ही छहों लेश्यों के परिणामों की यही संख्या 'कपित्थ' के साथ हुआ है। इसके दो अर्थ हैं-सकषाय- उल्लिखित है।”
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५२ : गवलं-महिषशृंगं। २. अभिधान चिन्तामणि ४३४६ : अरण्यजेस्मिन् गवलः।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५२ : रिष्ठो-द्रोणकाकः ‘स एव रिष्ठकः, यद् वा
रिष्टको नाम फलविशेषः । ४. वही, पत्र ६५३ : कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च वृद्धसंप्रदायः
'वण्णाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तेलकटतो भण्णइ' ति। कैयदेवनिघण्टु, औषधिवर्ग, श्लोक ११७० पिप्पलीशुण्ठिमरिचैव्योषं त्रिकटुक कटु।
कटुत्रयं त्र्यूषणञ्च............ || ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५३ : तुवरं-सकषायं.....उभयत्र धादिपक्वम् । ७. अभिधान चिन्तामणि, ६२५ ।
८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५४ : परकेणं ति अनन्तानन्तगुणत्वात् तद अतिक्रमेण
वर्तते इति गम्यते। ६. प्रज्ञापना पद १७।१३४,१३५। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५५ : इह च त्रिविधः-जघन्य मध्यमउत्कृष्टभेदेन,
नवविधः-यदैषामपि जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येक जघन्यादित्रयेण गुणना एवं पुनस्त्रिकगुणनया सप्तविंशतिविधत्वमेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशद् द्विशतविधत्वं च भावनीयम्। आह–एवं
तारतम्यचिन्तायां कः संख्यानियमः? उच्यते, एवमेतत, उपलक्षणं चैतत्। ११. पन्नवणा २०११३६ : कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणामं परिणमति ?
गोयमा । तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसतिविहं वा एकासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणाम परिणमति। एवं जाव सुक्कलेस्सा।
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